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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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और बहुत भारी यातनाओं से दुःखी होता हुआ मरकर दुर्गति को प्राप्त हुआ। इस प्रकार तृतीय अव्रत की कथा पूर्ण हुई।
कुशील सेवन से निवृत्ति न होने के कारण यमदण्ड कोतवाल ने दुःख प्राप्त किया । इसकी कथा इस प्रकार है
यमदण्ड कोतवाल की कथा आहीर देश के नासिक्य नगर में राजा कनकरथ रहते थे। उनकी रानी का नाम कनकमाला था। उनका एक यमदण्ड नामका कोतवाल था। उसकी माता अत्यन्त सुन्दरी थी। वह यौवन अवस्था में ही विधवा हो गई थी तथा व्यभिचारिणी बन गई थी। एक दिन उसकी पुत्रवधु ने उसे रखने के लिए एक आभूषण दिया। उस आभूषण को पहिनकर वह रात्रि में अपने पहले से संकेतित जार के पास जा रही थी। यमदण्ड ने उसे देखा और एकान्त में उसका सेवन किया । यमदण्ड ने उसका आभूषण लाकर अपनी स्त्री को दे दिया। स्त्री ने उसे देखकर कहा कि यह आभूषण तो मेरा है, मैंने रखने के लिए सास के हाथ में दिया था। स्त्री के क्वन सुनकर यमदण्ड कोतवाल ने विचार किया कि मैंने जिसका उपभोग किया है, वह मेरी माता होगी। तदनन्तर यमदण्ड ने माता के जार के संकेतगह (मिलने के स्थान) पर जाकर उसका पुन: सेवन किया और उसमें आसक्त होकर गूढरीति से उसके साथ कुकर्म करने लगा।
एक दिन उसकी स्त्री को जब यह सहन नहीं हुआ तब उसने अत्यन्त कुपित होकर धोबिन से कहा कि हमारा पति अपनी माता के साथ रमण करता है। धोबिन ने मालिन से कहा, मालिन कनकमाला रानी की अत्यन्त विश्वास पात्र थी, वह उसके निमित्त फूल लेकर गयी । रानी ने कुतूहलवश उससे पूछा कि कोई अपूर्व बात जानती हो ? मालिन कोतवाल से द्वेष रखती थी, अत: उसने रानी से कह दिया कि देवी ! यमदण्ड कोतवाल अपनी माता के साथ रमण करता है। कनकमाला ने यह समाचार राजा से कहा और राजा ने गुप्तचर के द्वारा उसके कुकर्म का निश्चय कर कोतवाल को पकड़वाया 1 दण्डित होने पर वह दुर्गति को प्राप्त हुआ।
इस प्रकार चतुर्थ अव्रत की कथा पूर्ण हुई।
परिग्रह पाप से निवृत्ति न होने के कारण श्मश्रुनवनीत ने बहुत दुःख प्राप्त किया । इसकी कथा इस प्रकार है