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का भक्षण करने लगू ं, इसलिए प्रातःकाल आप लोग हमारे मुखको बांधकर जाइये । पक्षियों ने कहा कि हाय पिताजी ! आप तो हमारे बाबा हैं, आप में इसकी सम्भावना कैसे की जा सकती है ? वृद्ध पक्षी ने कहा कि 'बुभुक्षितः किं न करोति पापम्' भूखा प्राणी क्या पाप नहीं करता ? इस तरह प्रातःकाल सब पक्षी उस वृद्ध के कहने से उसके मुखको बाँधकर चले गये । वह बँधा हुआ वृद्ध पक्षी, सब पक्षियों के चले जाने पर अपने पैरों से मुख का बन्धन दूर कर उन पक्षियों के बच्चों को खा गया और जब उनके आने का समय हुआ तब फिर से पैरों के द्वारा मुख में बन्धन डालकर कपट से
क्षीणोदर होकर पड़ गया ।
रत्नकरण्डमाचार
(४) अनन्तर मैं एक नगर में पहुंचा। वहां मैंने चौथा कपट देखा । वह इस प्रकार है कि उस नगर में एक चोर तपस्वी का रूप रखकर तथा दोनों हाथों से मस्तक के ऊपर एक बड़ी शिला को उठाकर दिन में खड़ा रहता था और रात्रि में 'हे जीव हटो में पैर रख रहा हूँ, हे जीव हटो मैं पैर रख रहा हूँ' इस प्रकार कहता हुआ भ्रमण करता था । समस्त भक्तजन उसे 'अपसर जीव' इस नाम से कहने लगे थे । वह चोर जब कोई गड्ढा आदि एकान्त स्थान मिलता तो सब ओर देखकर सुवर्ण से विभूषित प्रणाम करते हुए एकाकी पुरुष को उस शिला से मार डालता और उसका धन ले लेता था । इन चार तीव्र कपटों को देखकर मैंने यह श्लोक बनाया था ।
अबालेति - पुत्र का स्पर्श न करने वाली स्त्री, तृण का घात न करने वाला ब्राह्मण, वन में काष्ठमुख पक्षी और नगर में अपसर जीवक ये चार महा कपट
मैंने देखे हैं ।
ऐसा कहकर तथा कोट्टपाल को धीरज बँधाकर वह ब्राह्मण सींके में रहने बाले तपस्वी के पास गया । तपस्वी के सेवकों ने उसे वहां से निकालना भी चाहा, परन्तु वह रात्र्यन्ध बनकर वहीं पड़ा रहा और एक कोने में बैठ गया । तपस्वी के उन सेवकों ने 'यह सचमुच में ही रात्र्यन्ध है या नहीं' इसकी परीक्षा करने के लिए तृण की काड़ी तथा अंगुली आदिक उसके नेत्रों के पास चलायी, परन्तु वह देखता हुआ भी नहीं देखता रहा । जब रात काफी हो गई तब उसने गुहारूप अन्धकूप में रखे जाते हुए नगर के धनको देखा और उन लोगों के खान-पान आदि को देखा । प्रातः काल उसने जो कुछ रात्रि में देखा था उसे कहकर राजा के द्वारा मारे जाने वाले कोट्टपाल की रक्षा की। सींके में बैठने वाला वह तपस्वी उस कोट्टपाल के द्वारा पकड़ा गया