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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १८५ कोट्टपाल चिन्ता में निमग्न हो अपराह्नकाल में बैठा था कि किसी भूखे ब्राह्मण ने आकर उससे भोजन मांगा। कोट्टपाल ने कहा-'हे ब्राह्मण ! तुम अभिप्राय को नहीं जानते । मुझे तो प्राणों का सन्देह हो रहा है और तुम भोजन मांग रहे हो ।' यह वचन सुनकर ब्राह्मण ने पूछा कि तुम्हें प्राणों का सन्देह किस कारण हो रहा है ? कोट्टपाल ने कारण कहा । उसे सुनकर ब्राह्मण ने फिर पूछा 'यहां क्या कोई अत्यन्त निःस्पृह बृत्तिवाला पुरुष रहता है ?' कोटपाल ने कहा कि विशिष्ट तपस्वी रहता है, परन्तु यह कार्य उसका हो, ऐसा सम्भव नहीं है। ब्राह्मण ने कहा कि वही चोर होगा, क्योंकि वह अत्यन्त निःस्पृह है। इस विषय में मेरी कहानी सुनिये (१) मेरी ब्राह्मणी अपने आपको महासती कहती है और कहती है कि 'मैं पर-पुरुष के शरीर का स्पर्श नहीं करती' यह पाहकर जीव कपट से सपा कारीर को कपड़े से आच्छादित कर अपने पुत्र को स्तन देती है--दूध पिलाती है परन्तु रात्रि में गृहके वरेदी के साथ कुकर्म करती है।
(२) यह देख मुझे वैराग्य उत्पन्न हो गया और मैं मार्ग में हितकारी भोजन के लिए सुवर्णशलाका को बाँस की लाठी के बीच रखकर तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ा। आगे चलने पर मुझे एक ब्रह्मचारी बालक मिल गया-बह हमारे साथ हो गया। मैं उसका विश्वास नहीं करता था। इसलिये उस लाठी की बड़े यत्न से रक्षा करता था। उस बालक ने ताड़ लिया अर्थात् उसने समझ लिया कि यह लाठी सगर्भा हैइसके भीतर कुछ धन अवश्य है । एक दिन वह बालक रात्रि में कुम्भकार के घर सोया । प्रातः वहां से चलकर जब दूर आ गया तब मस्तक में लगे हुए सड़े तृण को देखकर कपटवश उसने मेरे आगे कहा कि हाय ! हाय ! मैं दूसरे के तृणको ले आया। ऐसा कहकर बह लौटा और उस तृण को उसी कुम्भकार के घर पर डालकर सायंकाल के समय मुझ से आ मिला जबकि मैं भोजन कर चुका था। वह बालक जब भिक्षा के लिए जाने लगा तब मैंने सोचा कि यह तो बहुत पवित्र है, इस तरह उस पर विश्वास कर कुत्त आदि को भगाने के लिए मैंने वह लाठी उसको दे दी। उसे लेकर वह चला गया।
(३) तदनन्तर महाअटवी में जाते हुए मैंने एक वृद्धपक्षी का बड़ा कपट देखा । एक बड़े वृक्ष पर रात्रि के समय बहुत पक्षियों का समूह एकत्र हुआ। उसमें अत्यन्त वृद्धपक्षी ने रात्रि के समय अपनी भाषा में दूसरे पक्षियों से कहा कि हे पुत्रो ! अब मैं अधिक चल नहीं सकता। कदाचित् भूख से पीड़ित होकर आप लोगों के पुत्रों