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________________ १८४] रुनक : श्रावकाचार पहिचान के रूप में देकर निपुणमति को फिर से भेजा, परन्तु उसने फिर भी नहीं दिये । अब की बार रानी ने पुरोहित का कैंची सहित जनेऊ जीत लिया । निपुणमति ने उसे पहिचान के रूप में दिया और दिखाया । उसे देखकर उसे विश्वास हुआ तथा 'यदि रत्न नहीं दूगी तो वे कुपित होंगे, इस प्रकार भयभीत होकर ब्राह्मणी ने पंचरत्न निपुणमति को दे दिये, और उसने लाकर रानी रामदत्ता को सौंप दिये। रामदत्ता ने राजा को दिखाये । राजा ने उन रत्नों को और बहुत से रत्नों में मिलाकर उस पागल से कहा कि अपने रत्न पहिचान कर उठा लो । उसने अपने सब रत्न छाँटकर उठा लिये, तब राजा और रानी ने उसे वणिकपुत्र-सेठ मान लिया कि वास्तव में, यह पागल नहीं है, यह तो वणिकपुत्र है । तदनन्तर राजा ने सत्यघोष से पूछा कि तुमने यह कार्य किया है ? उसने कहा कि देव ! मैं यह काम नहीं करता हूँ। मुझे ऐसा करना क्या युक्त है ? तदनन्तर अत्यन्त कपित हुए राजा ने उसके लिए तीन दण्ड निर्धारित किये-१ तीन थाली गोबर खावो, २ पहलवानों के तीन मुक्के खावो अथवा ३ समस्त धन दे दो। उसने विचार कर पहले गोबर खाना प्रारम्भ किया । पर जब गोबर खाने में असमर्थ रहा तब पहलवानों के मुक्के सहन करना शुरू किया, किन्तु जब उसमें भी असमर्थ रहा तब सब धन देना प्रारम्भ किया। इस प्रकार तीनों दण्डों को भोगकर वह मरा और तीव्रलोभ . के कारण राजा के खजाने में अगन्धन जाति का साँप हुआ । वहां भी मरकर दीर्घ संसारी हुआ । इस प्रकार द्वितीय' अग्रत की कथा पूर्ण हुई। चोरी से तापस बहुत दुःस्त्र को प्राप्त हुआ, इसको कथा इस प्रकार है तापस की कथा बत्सदेश की कौशाम्बी नगरी में राजा सिंहरथ रहता था। उसकी रानी का नाम विजया था। वहां एक चोर कपट से तापस होकर रहता था। वह दूसरे की भूमि का स्पर्श न करता हुआ लटकते हुए सोंके पर बैठकर दिन में पञ्चाग्नि तप करता था और रात्रि में कौशाम्बी नगरो को लूटता था। एक समय 'नगर लुट गया है। इस तरह महाजन से सुनकर राजा ने कोट्टपाल से कहा-'रे कोट्टपाल ! सात रात्रि के भीतर चोर को पकड़ लाओ या फिर अपना सिर लाओ।' तदनन्तर चोर को न पाता हआ
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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