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रत्नकरण्ई श्रावकाचार
की आन्तरिक स्थिति तपाये हुए लोहे के गोले के समान है । क्योंकि वह आरम्भ और परिग्रह में लगा रहने से सर्वत्र जाने-आने, भोजन-शयन आदि क्रियाओं में जीवों का घात करता है। किन्तु दिशाओं की सीमा बांध लेने से की हुई मर्यादा के बाहर न वह अस जोवों की हिंसा करता है, और न स्थावर जीवों की हिंसा करता है । तथा मर्यादा के बाहर व्यापार करने से प्रचुर लाभ होने पर भी वह घ्यापार नहीं करता। इससे लोभ का भी ह्रास होता है। मर्यादा के बाहर सूक्ष्म पापों से भी विग्त हो जाने से दिव्रत के धारण करने वालों के अणुनत महानत के रूप में परिणत हो जाते हैं ॥ २४ ।। ७० ।।
तथा तेषां तत्परिणतावपरमपि हेतुमाहप्रत्याख्यान तनत्वान्मन्दतराश्चरण मोहपरिणामाः। सत्त्वेन दुखधारा महावताय प्रकल्प्यन्ते ॥२५॥ 2६||
'चरणमोहपरिणामाः' भावरूपाश्चारित्रमोहपरिणतयः । 'कल्प्यन्ते' उपचर्यन्ते । किमर्थं ? महानतनिमित्त । कथंभूताः सन्तः ? 'सत्वेन' 'दुखधारा' अस्तित्वेन महता कष्टेनावधार्यमाणाः सन्तोऽपि तेऽस्तित्वेन लक्षयितु न शक्यन्त इत्यर्थः । कुतस्ते दुखधारा: ? 'मन्दतरा' अतिशयेनानुत्कटाः। मन्दतरत्वमप्येषां कुतः ? 'प्रत्याख्यानतनुत्वात्' प्रत्याख्यानशब्देन हि प्रत्याख्यानावरणाः द्रव्य क्रोधमान मायालोभाः गृह्यन्ते । नामैकदेशे हि प्रवृत्ता: शब्दा नाम्न्यपि वर्तन्ते भीमादिवत् । प्रत्याख्यानं हि सविकल्पेन हिंसादिविरतिलक्षणः संयमस्तदावण्वन्ति ये ते प्रत्याख्यानावरणा द्रव्य क्रोधादय: यदुदये ह्यात्माकात्स्न्यत्तिद्विरति कतुं न शक्नोति, अतोद्रव्यरूपाणां क्रोधादीनां तनुत्वान्मन्दोदयत्वाद्भावरूपाणामेषां मन्दतरत्वंसिद्ध ।।२५।
अणवतों को महाअतरूप परिणति में और भी कारण कहते हैं
( प्रत्याख्यानतनुत्वात् ) प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का मन्द उदय होने से (मन्दतरा:) अत्यन्त मन्द अवस्था को प्राप्त हुए, यहां तक कि ( सत्वेन दुखधारा: ) जिनके आस्तित्व का निर्धारण करना भी कठिन है ऐसे ( चरणमोहपरिणामाः) चारित्रमोह के परिणाम ( महावताय ) महाबत के व्यवहार के लिए (प्रकल्प्यन्ते) उपचरित होते हैं- कल्पना किये जाते हैं ।