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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
तैंतालीस राजू प्रमाण है । तथा अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से तीन प्रकार का है। जहाँ पर केवल आकाश ही आकाश है, उसे अलोकाकाश कहते हैं । लोक और अलोक सर्वज्ञ के ज्ञान में स्वतः ही प्रतिबिम्बित होते रहते हैं || १ ||
अथ तन्नमस्कारकरणानन्तरं किं कतु" लग्नो भवानित्याह
देशयामि समीचीनं धर्मं कर्मनिबर्हणम् । संसार दुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२॥
'देशयामि' कथयामि । कं ? 'धर्म' । कथंभूतं ? 'समीचीनं' अबाधितं तदनुष्ठातृणामिह परलोके चोपकारकं । कथं तं तथा निश्चितवन्तो भवन्त इत्याह 'कर्मनिबर्हण' यतो धर्मः संसारदुःखसम्पादककर्मणां निबर्हणो विनाशकस्ततो यथोक्तविशेषणविशिष्ट: । अमुमेवार्थं व्युत्पत्तिद्वारेणास्य समर्थयमानः संसारेव्याद्याह संसारे चतुर्गति के दुःखानि शरीरमानसादीनि तेभ्यः 'सव्वान्' प्राणिन उद्धृत्य यो 'धरति' स्थापयति । क्व ? 'उत्तमे सुखे' स्वर्गापवर्गादि प्रभवे सुखे स धर्म इत्युच्यते ॥ २॥
अब नमस्कार करने के बाद समन्तभद्रस्वामी ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा करते हुए धर्म का निरुक्त अर्थ बतलाते हैं
देशयामीति । ( अहम् ) मैं ( कर्म निबर्हणम् ) कर्मों का विनाश करने वाले (तं) उस ( समीचीनं ) श्रेष्ठ ( धर्म ) धर्म को ( देशयामि ) कहता हूँ ( यः ) जो ( सत्त्वान् ) जीवों को ( संसारदुःखतः ) संसार के दुःखों से ( उत्तमे सुखे ) स्वर्ग - मोक्षादिक के उत्तम सुख में ( धरति ) धारण पहुँचा देता है ।
(उद्धृत्य ) निकाल कर करता है
टोकार्थ -- ग्रन्थकर्त्ता श्री समन्तभद्रस्वामी प्रतिज्ञा वाक्य कहते हैं कि मैं उस अबाधित श्रेष्ठ धर्म का कथन करता हूँ जो जीवों का इस लोक में और परलोक में उपकार करने वाला है तथा संसार के समस्त दुःख देने वाले कर्मों का नाशक है । इन विशेषणों से विशिष्ट यह धर्म है । इसी अर्थ का व्युत्पत्ति द्वारा समर्थन करते हुए कहते हैं - जो जीवों को चतुर्गतिरूप संसार में होने वाले शारीरिक, मानसिक एवं आगन्तुक आदि दुःखों से निकालकर स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम सुख में धारण करता है उस समीचीन धर्म का कथन करता हूँ ।