SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरगड़ श्रावकाचार कमों के रस में प्रकर्षता हुआ करती है । अतः विघ्न उपस्थित करने में अन्तरंग कारण अन्तराय कर्म के निर्वीर्य हो जाने से अभिमत कार्य की सिद्धि निर्वाधरूप से हो जाती है । इसलिये समन्तभद्रस्वामी ने इस श्रावकाचार की रचना के प्रारम्भ में इष्ट गुणों के आधारभूत श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार किया है । अरहन्त भगवान वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं, इन्हीं तीनों गुणों का उल्लेख कर श्री वर्धमानस्वामी को उन तीन गुणों से सहित बताया गया है । इसी पक्ष को लेकर कहा है-'निळू तकलिलात्मने'-'कलि-कलह लाति बत्ते इति कलिलम' जो कलह-झगड़ा या विरोध का कारण है उसको कलिल कहते हैं । कलिलात्मा--यहां इस शब्द से आशय उन पापों से है जो संसार में शान्ति-भंग करने में मूल कारण हैं वे पाप जीव के साथ अनादिकाल से लगे हैं, उन पापों की संख्या सौ १०० कही गई है। यथा-घातिया कम की ४७ प्रकृतियां नामकर्म की ५० और असातावेदनीय, नीच गोत्र तथा नरकायु । किन्तु स्नातक अवस्था वाले सर्वज्ञ हितोपदेशी तीर्थकर भगवान के इनमें से ६३ प्रकृतियों का अभाव हो जाता है। धातिया कर्म को ४७ तथा अघातिया कर्म की १६, इनमें तीन आयु भी सम्मिलित है। इस प्रकार इन ६३ प्रकृतियों का नाश करके अरहन्त परमेष्ठी अवस्था प्राप्त होती है। यही कारण है कि इनको अपनी आत्मा से पृथक् कर देने वाला निधू तकलिलात्मा कहा गया है। दूसरी बात यह है कि जो पाप कर्म अभी सत्ता में स्थित हैं, वे मोहनीय कर्म का नाश हो जाने से अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होते, वे कम या तो फल दिये बिना ही निर्जीर्ण हो जाते हैं या अन्य सजातीय पुण्य प्रकृति के साथ निकल जाते हैं। जैसे-असातावेदनीय-सातारूप में, इत्यादि । सर्वज्ञता का वर्णन करने के लिए उनके ज्ञानको दर्पण की उपमा दी गई है। जिस प्रकार दर्पण पदार्थों के पास नहीं आता है फिर भी दर्पण की स्वच्छता के कारण उसमें समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान पदार्थों के पास नहीं जाता और पदार्थ भी अरहन्त भगवान के ज्ञान के पास नहीं जाते, फिर भी उनके ज्ञान में समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं । ___आकाश के दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । आकाश के जितने क्षेत्र में जीव, पुद्गल आदि छहों द्रव्य रहते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं । यह लोक तीन सौ
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy