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________________ प्राय वक्तव्य रागद्वेष द्वयीदीर्घा नेत्राकर्षण कर्मणा । अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ।। यद्यपि जीव टंकोल्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव वाला है तथापि अनादि काल से कर्म संयुक्त होने से रागी द्वेषी होता हुआ अपने स्वभाव से च्युत होकर संसार परिभ्रमण कर रहा है। यह लोकोक्ति है कि जिस तरह मंदराचल को दीर्घ नेत्राकर्षण के कारण बहुत काल तक समुद्र में घूमना पड़ा था। अर्थात्-अन्य सम्प्रदाय में यह कथा प्रसिद्ध है कि जब मंदराचल को विशाल नेत्र धारण करने की इच्छा हुई तब नारायण ने नेतरी से समुद्र का मन्थन किया, जिससे मंदराचल को बहुत काल तक समुद्र में घूमना पड़ा था । उसी प्रकार अज्ञान के कारण जो जीव राग-द्वेष में संलग्न रहते हैं इष्ट अथवा प्रिय पदार्थों में प्रेम अनिष्ट एवं अप्रिय पदार्थों में द्वेष रखते हैं वे चिरकाल तक संसार में जन्म मरणादि के अनेक कष्ट उठाते रहते हैं । संसार दुःखमय है इस दुःख से छुटकारा तब तक नहीं हो सकता जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती । कर्ममुक्ति ही वास्तव में मुक्ति है । मोक्ष प्राप्ति के उपायों का वर्णन करते हुए आचार्यों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की एकता को मोक्ष का मार्ग बतलाया है। इन तीनों के माध्यम से तथ्यकर्म, भाषकर्म और नोकर्मों का अभाव होता है क्योंकि सम्यग्दर्शनादिक आत्मा के स्वभाव होने से धर्म कहलाते हैं तथा इनके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र अधर्म कहे जाते हैं । धर्म से मोक्ष और अधर्म से संसार प्राप्त होता है । अत: मोक्षाभिलाषी जीवों को रत्नत्रयरूप धर्म को धारण करना चाहिए। इस ग्रन्थ में तीनों के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है 1 जैनागम में चारों अनुयोगों में विभिन्न दृष्टि कोण से सम्यग्दर्शन पर प्रकाश डाला गया है । प्रथमानुयोग और चरणानुयोग की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का स्वरूप इस प्रकार है
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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