________________
( ११) परमार्थभूत देव-शास्त्र-गुरु का तीन मूढता, आठ मदों से रहित और आठ अंगों से सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है 1 जो बीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं वे सच्चे देव कहलाते हैं । वीतराग सर्वज्ञदेव की दिव्यध्वनि को अवधारण कर गणधरादिकों के द्वारा गुम्फित आगम को शास्त्र कहते हैं । तथा जो विषयों की आशा और आरंभ परिग्रह से रहित निष्परिग्रही एवं ज्ञान-ध्यान और तप में लवलीन साधु गुरु कहलाते हैं। इन तीनों के अवलम्बन से प्राणी संसाररूपी कारावास एवं अनादि कर्मबन्धन से परिमुक्त हो सकता है।
करणानुयोग में-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय से होने वाली श्रद्धागुण की स्वाभाविक परिणति को सम्यग्दर्शन कहा है। करणानुयोग के सम्यग्दर्शन हो जाने पर नियम से प्रथमानयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन हो जाता है। किन्तु शेष अनुयोग के सम्यग्दर्शन होने पर करणानयोग के अनुसार सम्यग्दर्शन हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है ।
द्रव्यानुयोग-में जीव, अजीव, आश्रव, बन्य, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्व एवं पुण्य-पाप सहित नौ पदार्थ के यथावत श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है तथा इसी अनुयोग के अंतर्गत अध्यात्म ग्रन्थों में परद्रव्यों से भिन्न अपने आत्म द्रव्य की प्रतीति को सम्यग्दर्शन कहा है।
बन्ध मोक्ष के प्रकरण में करणानुयोग का सम्यग्दर्शन अपेक्षित है अन्य का नहीं 1 किन्तु यह सम्यग्दर्शन पुरुषार्थपूर्वक प्राप्त नहीं किया जा सकता है, पुरुषार्थपूर्वक तो प्रथमानुयोग चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग के अनुसार प्रतिपादित सम्यग्दर्शन को ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि जीव बुद्धिपूर्वक परमार्थभूत देव-शास्त्र-गुरु की शरण ग्रहण करता है, उन पर श्रद्धान रखता है आगम का अभ्यास करता हुआ तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करता है इस प्रकार अनुकूल सामग्री प्राप्त हो जाने पर करणानुयोग के अनुरूप सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है तब उस जीव के संवर और निर्जरा होने लगती है।
सम्यग्दृष्टि जीव अपनी ज्ञान वैराग्यशक्ति के कारण सांसारिक कार्य करता हआ जल में रहने वाले कमल के सदृश निर्लेप रहता है। स्वरूप की ओर दृष्टि रखने