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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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परिग्रहविरति अणुनत से जयकुमारपूजातिशय को प्राप्त हुआ था। उसकी कथा इस प्रकार है
जयकुमार की कथा कुरुजांगल देश के हस्तिनागपुर नगर में कुरुवंशी राजा सोमप्रभ रहते थे। उनके जयकुमार नामका पुत्र था। वह जयकुमार परिग्रहपरिमाणवत का धारी था तथा अपनी स्त्री सुलोचना से ही सम्बन्ध रखता था । एक समय, विद्याधर अवस्था के पूर्व भवों की कथा के बाद जिन्हें अपने पूर्वभवों का ज्ञान हो गया था, ऐसे जयकुमार और सुलोचना हिरण्यधर्मा और प्रभावती नामक विद्याधर पुद्गल का रूप रखकर मेरु आदि पर वन्दना-भक्ति करके कैलास पर्वत पर भरत चक्रवर्ती के द्वारा प्रतिष्ठापित चौवीस जिनालयों की वन्दना करने के लिए आये । उसी अवसर पर सौधर्मेन्द्र ने स्वर्ग में जयकुमार के परिग्रहपरिमाणत की प्रशंसा की। उसकी परीक्षा करने के लिए रतिप्रभ नामका देव आया। उसने स्त्री का रूप रख चार स्त्रियों के साथ जयकुमार के समीप जाकर कहा कि सुलोचना के कर के समय जिसने तुम्हारे साथ युद्ध किया था उस नमि विद्याधर राजा की रानी को, जो कि अत्यन्त रूपवती, नवयौवनवती, समस्त विद्याओं को धारण करने वाली और उससे विरक्तचित्त है, स्वीकृत करो, यदि उसका राज्य और अपना जोवन चाहते हो तो। यह सुनकर जयकुमार ने कहा कि हे सन्दरि ! ऐसा मत कहो, परस्त्री मेरे लिए माता के समान है । तदनन्तर उस स्त्री ने जयकुमार पर बहुत उपसर्ग किया, परन्तु उसका चित्त विचलित नहीं हुआ। अनन्तर वह रतिप्रभदेव माया को संकुचित कर पहले का सब समाचार कहकर प्रशंसा कर और बस्त्र आदि से पूजाकर स्वर्ग चला गया । इस प्रकार पञ्चम अणवत की कथा पूर्ण हुई ।।१८।६४।।
___एवं पंचानामहिंसादिवताना प्रत्येकं गुणं प्रतिपाद्येदानीं तद्विपक्षभूतानां हिंसाद्यव्रतानां दोषं दर्शयन्नाह
धनश्रीसत्यघोषौ च तापसारक्षकावपि ।
उपाख्येयास्तथा श्मश्रुनवनीतो यथाक्रमम् ॥१६॥20॥
धनश्रीश्रेष्ठिन्या हिंसातो बहुप्रकारं दुःखफलमनुभूतं । सत्यघोषपुरोहितेनानृतात् । तापसेन चौयत् ि । आरक्षकेन कोट्टपालेन ब्रह्मणि वृत्त्यभावात् । ततोव्रतप्रभव