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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
कर लिया कि यह पुत्री मेरे हुई ही नहीं है अथवा कुआ प्रादि में गिर गयी है अथवा मर गयी है । नीली अपने पति को प्रिय थी, अतः वह ससुराल में, जिनधर्म का पालन करती हुई एक भिन्न घर में रहने लगी ।
समुद्रदत्त यह विचार कर कि बौद्ध साधुओं के दर्शन से, उनके धर्म और देव का नाम सुनने से काल पाकर यह बुद्ध की भक्त हो जायेगी, एक दिन समुद्रदत्त ने कहा कि नीली बेटी ! बौद्ध साधु बहुत ज्ञानी होते हैं, उन्हें देने के लिए हमें भोजन बनाकर दो । तदनन्तर नीली ने बौद्ध साधुओं को निमन्त्रित कर बुलाया और उनकी एक-एक प्राणहिता - जूती को अच्छी तरह पीसकर तथा मसालों से सुसंस्कृतकर उन्हें खाने के लिए दे दिया। वे बौद्ध साधु भोजन कर जब जाने लगे तो उन्होंने पूछा कि हमारी जूतियां कहां हैं ? नीली ने कहा कि आप ही अपने ज्ञान से जानिये, जहाँ वे स्थित हैं। यदि ज्ञान नहीं है तो वमन कीजिये । आपकी जूतियां आपके ही पेट में स्थित हैं । इस प्रकार वमन किये जाने पर उनमें जूतियों के टुकड़े दिखाई दिये । इस घटना से नीली के श्वसुरपक्ष के लोग बहुत रुष्ट हो गये ।
तदनन्तर सागरदत्त की बहन ने क्रोधवश उसे परपुरुष के संसर्ग का झूठा दोष लगाया | जब इस दोष की प्रसिद्धि सव ओर फैल गयी, तब नीली भगवान जिनेन्द्र के आगे संन्यास लेकर कायोत्सर्ग से खड़ी हो गयी और उसने नियम ले लिया कि इस दोष से पार होने पर ही मेरी भोजन आदि में प्रवृत्ति होगी, अन्य प्रकार से नहीं । तदनन्तर क्षोभ को प्राप्त हुई नगर देवता ने आकर रात्रि में उससे कहा कि हे महासती ! इस तरह प्राण त्याग मत करो, मैं राजा को तथा नगर के प्रधान पुरुषों को स्वप्न देती हूँ कि नगर के सब प्रधान द्वार कीलित हो गये हैं, वे महापतिव्रता स्त्री के बांये चरण के स्पर्श से खुलेंगे। वे प्रधान द्वार प्रातःकाल आपके पैरका स्पर्श कर ही खुलेंगे, ऐसा कहकर वह नगर देवता राजा आदि को वैसा स्वप्न दिखाकर तथा नगर के प्रधान द्वारों को बन्द कर बैठ गयी । प्रातःकाल नगर के प्रधान द्वारों को कीलित देखकर राजा आदि ने पूर्वोक्त स्वप्न का स्मरण कर नगर की सब स्त्रियों के पैरों से द्वारों की ताड़ना करायी । परन्तु किसी भी स्त्री के द्वारा एक भी प्रधान द्वार नहीं खुला । सब स्त्रियों के बाद नीली को भी वहां उठाकर ले जाया गया। उसके चरणों के स्पर्श से सभी प्रधान द्वार खुल गये । इस प्रकार नीली निर्दोष घोषित हुई और राजा आदि के द्वारा सम्मान को प्राप्त हुई। यह चतुर्थ अणुव्रत की कथा पूर्ण हुई ।