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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
नियम के अनुसार उन दोनों को दिव्य न्याय दिया गया । अर्थात् उनके हाथों पर जलते हुए अङ्गारे रखे गये । इस दिव्य न्याय से धनदेव निर्दोष सिद्ध हुआ, तदनन्तर सब धन धनदेव के लिए दिया गया और धनदेव सब लोगों के हुआ तथा धन्यवाद को प्राप्त हुआ ।
दूसरा नहीं । द्वारा पूजित
इस प्रकार द्वितीय अणुव्रत को कथा है ।
चौर्यविरति अणुव्रत से वारिषेण ने पूजा का अतिशय प्राप्त किया था । इसकी कथा स्थितीकरण गुण के व्याख्यान के प्रकरण में कही गयी है । वह इस प्रकरण में भी देखनी चाहिए । इस प्रकार तृतीय अणुव्रत की कथा है। मातंग, धनदेव और वारिषेण के आगे नीली और जयकुमार पूजातिशय को प्राप्त हुए हैं। उनमें अब्रह्मविरति अणुव्रत- ब्रह्मचर्यणुव्रत से नीली नामकी वणिक्पुत्री पूजातिशय को प्राप्त हुई है ।
उसकी कथा इस प्रकार है
नीली की कथा
लादेश के भृगुकच्छ नगर में राजा वसुपाल रहता था । वहीं एक जिनदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम जिनदत्ता था। उनके नीली नामकी एक पुत्री थी, जो अत्यन्त रूपवती थी । उसी नगर में समुद्रदत्त नामका एक सेठ रहता था, उसकी स्त्री का नाम सागरदत्ता था और उन दोनों के एक सागरदत्त नामका पुत्र था । एक बार महापूजा के अवसर पर मन्दिर में कायोत्सर्ग से खड़ी हुई तथा समस्त आभूषणों से सुन्दर नीलो को देखकर सागरदत्त ने कहा कि क्या यह भी कोई देवी है ? यह सुनकर उसके मित्र प्रियदत्त ने कहा कि यह जिनदत्त सेठ की पुत्री नीली है । नीली का रूप देखने से सागरदत्त उसमें अत्यन्त आसक्त हो गया और यह किस तरह प्राप्त हो सकती है, इस प्रकार उससे विवाह की चिन्ता से दुर्बल हो गया । समुद्रदत्त ने यह सुनकर उससे कहा कि हे पुत्र ! जैन को छोड़कर अन्य किसी के लिए जिनदत्त इस पुत्री को विवाहने के लिए नहीं देता है ।
तदनन्तर वे दोनों पिता पुत्र कपट से जैन हो गये और नीली को विवाह लिया | विवाह के पश्चात् वे फिर बुद्धभक्त हो गये । उन्होंने नीली का पिता के घर जाना भी बन्द कर दिया । इस प्रकार धोखा होने पर जिनदत्त ने यह कहकर सन्तोष