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रत्नकरण्ड श्रावकाचार समझकर मुझे श्मशान में डाल दिया गया था। वहां सकौ षधिऋद्धि के धारक मुनिराज के शरीर की वायु से मैं पुनः जीपित हो गया। उस समय भने उन मुनिराज के पास चतुर्दशी के दिन जीवघात न करने का व्रत लिया था, इसलिए आज मैं नहीं मार रहा ह-आप जो जानें सो करें। 'अस्पृश्य चाण्डाल के भी व्रत होता है' यह विचार कर राजा बहत रुष्ट हुआ और उसने दोनों को मजबूत बँधवाकर सुमार (शिशुमार) नामक तालाब में डलवा दिया। उन दोनों में चाण्डाल ने प्राणघात होने पर भी अहिंसावत को नहीं छोड़ा था, इसलिए उसके व्रत के माहात्म्य से जल देवता ने उसके लिए जल के मध्य सिंहासन, मणिमय मण्डप, दुन्दुभिबाजों का शब्द तथा साधुकारअच्छा किया, अच्छा किया, आदि शब्दों का उच्चारण, यह सब महिमा की। महाबल राजा ने जब यह समाचार सुना तब भयभीत होकर उसने चाण्डाल का सम्मान किया तथा अपने छत्र के नीचे उसका अभिषेक कराकर उसे स्पर्श करने योग्य विशिष्ट पुरुष घोषित कर दिया।
यह प्रथम अहिंसाणुव्रत की कथा पूर्ण हुई । सत्याणवत से धनदेव सेठ ने पूजातिशय को प्राप्त किया था। उसकी कथा इस प्रकार है
धनदेव की कथा जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र सम्बन्धी पुष्कलावती देश में एक पुण्डरीकिणी नामक नगरी है । उसमें जिनदेव और धनदेव नामके दो अल्पपूंजी वाले ध्यापारी रहते थे। उन दोनों में धनदेव सत्यवादी था। एक बार वे दोनों जो लाभ होगा उसे आधाआधा ले लेंगे । ऐसी बिना गवाह की व्यवस्था कर दूर देश गये। वहां बहुत सा धन कमाकर लौटे और कुशलपूर्वक पुण्डरीकिणी नगरी आ गये । उनमें जिनदेव, धनदेव के लिए लाभ का आधा भाग नहीं देता था। वह उचित समझकर थोड़ा सा द्रध्य उसे देता था । तदनन्तर झगड़ा होने पर न्याय होने लगा । पहले कुटम्बीजनों के सामने. फिर महाजनों के सामने और अन्त में राजा के आगे मामला उपस्थित किया गया। परन्त बिना गवाही का व्यवहार होने से जिनदेव कह देता कि मैंने इसके लिए लाभ का आधा भाग देना नहीं कहा था । उचित भाग ही देना कहा था । धनदेव सत्य ही कहता था कि दोनों का आधा-आधा भाग ही निश्चित हुआ था । तदनन्तर राजकीय