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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १६७ ऐसा नियम है कि देवायु को छोड़कर जिस जीवके अन्य आय का बन्ध हो गया है, वह उस पर्याय में अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता है। और अणुव्रत के काल में यदि आयुबन्ध होता है तो नियम से देवायु का ही बन्ध होता है। अणुव्रत धारण करने के पहले मिथ्यात्व अवस्था में किसी ने भवनत्रिक की आय बांधी हो तो वह भी अणुवती होने के पश्चात् वैमानिक देव की आयु में परिवर्तित हो जाती है । अणुव्रतों का धारक जीव सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है । उसके आगे उत्पन्न होने के लिए तो निग्रंथ दिगम्बर मुद्रा धारण करना आवश्यक है । जिसे समतारूपी अमृतपान करने की तीन उत्कण्ठा है, उसे व्रत धारण करने का लक्ष्य बनाकर पंच अणुव्रतों को अपनाकर उन्हें भावनाओं के द्वारा निरतिचार बनाना चाहिए और उनको पुष्ट करने के लिए सात शीलों का पालन करना चाहिए। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थ सिद्धय पाय में कहा है
परिधय इव नगराणि प्रतानि परिपालयन्ति शीलानि । बत पालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥१३६॥
अर्थ-जिस प्रकार कोट से नगर की रक्षा होती है वैसे ही शीलों से ब्रतों की रक्षा होती है। अत: शीलों का भी परिपालन करना चाहिए। इस प्रकार बतों का पालन करते हुए समाधिपूर्वक मरण करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है ।।१७।६३।।
इह लोके किं न कस्याप्यहिंसाद्यणुव्रतानुष्ठानफलप्राप्तिईष्टा ये न परलोकार्थ तदनुष्ठीयते इत्याशंक्याह
मातंगो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः । नीली जयश्च सम्प्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम् ॥६॥ १९॥ हिंसा विरत्यणुव्रतात् मातंगेन चाण्डालेन उत्तमः पूजातिशयः प्राप्तः ।
प्रस्य कथा सुरम्यदेशे पोदनपुरे राजा महाबलः । नन्दीश्वराष्टम्यां राज्ञा अष्टदिनानि जीवामारण घोषणायां कृतायां बलकुमारेण चात्यन्तमांसासक्तेन कंचिदपि पुरुषमपश्यता राजोद्याने राजकीयमेण्ढक : प्रच्छन्नेन मारयित्वा संस्कार्य भक्षितः । राज्ञा च मेण्ढकमारणवार्तामाकर्ण्य रुष्टेन मेण्ढकमारको गवेषयितु प्रारब्धः । तदुद्यानमालाकारेण च