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रत्नकरण्ड श्रावकाचार निम्नलिखित पाँच भावनाएँ लिखी हैं – 'मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषय रागद्वेषवर्जनानिपंच' अर्थात्-स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषय में राग-द्वेष नहीं करना परिग्रहत्यागवत की पांच भावनाएँ हैं ।।१६।।६२।।
एवं प्ररूपितानि पंचाणुव्रतानि निरतिचाराणि किं कुर्वन्तीत्याहपञ्चाणुनतनिधयो निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोकं । यत्रावधिरष्टगुणा दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते ॥16॥१८ }
‘फलन्ति' फलं प्रयच्छन्ति । के ते ? 'पंचाणुव्रतनिधयः' पंचाणुव्रतान्येव निधयो निधानानि ! कथंभूतानि ? 'निरतिक्रमणा' निरतिचाराः । किं फलन्ति ? 'सुरलोकं'। यत्र सुरलोके 'लभ्यन्ते' । कानि ।' 'अबधिरवविज्ञान' । 'गुमा अगिमामहिमेत्यादयः । 'दिव्यशरीरं च सप्तधातुविजितं शरीरं । एतानि सर्वाणि यत्र लभ्यन्ते ॥१७॥
इस प्रकार अतिचार रहित पांच अणुव्रतों का वर्णन किया । अब ये क्या फल देते हैं ? यह कहते हैं
(निरतिक्रमणा:) अतिचाररहित (पञ्च) पांच (अणुव्रतनिधयः) अणुव्रतरूपी निधियां (तं) उस (सुरलोक) स्वर्गलोकको ( फलन्ति ) फलती हैं-देती हैं ( यत्र ) जिसमें ( अवधि: ) अवधिज्ञान ( अष्टगुणाः ) अणिमा महिमा आदि आठ गुण (च) और (दिव्य शरीरं) सात धातुओं से रहित बैंक्रियिक शरीर (लभ्यन्ते ) प्राप्त होते हैं।
__टोकार्थ-निरतिचार पंच अणुव्रत निधियों के समान हैं। इस प्रकार जो इनका अतिचार रहित परिपालन करता है वह नियम से स्वर्ग जाता है। स्वर्ग में भवप्रत्यय अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है, और अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ ऋद्धियां प्राप्त होती हैं तथा सप्तधातु से रहित दिव्य वैक्रियिक शरीर प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ-अणुव्रत धारण करने वाले जीव दो प्रकार के होते हैं । बद्धायुक और अबद्धायुष्क । जो अणुन्नत धारण करने के पहले आयु बाँध चुके हैं वे बद्धायुष्क कहलाते हैं और जो अणुव्रतों के धारण करने के पश्चात् आयु बांधते हैं वे अबद्धायष्क कहलाते हैं। ये दोनों ही प्रकार के अणुव्रती नियम से वैमानिक देव होते हैं, क्योंकि ऐसा नियम है। 'अणुवदमहव्वदाई न लहदि देवाउगं मोत्त' क्योंकि