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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १६५ के आवेश से जो अत्यन्त खेद एवं अतिविस्मय करता है। यह अतिविस्मय नामक अतिचार है। प्रतिलोभ--विशिष्ट अर्थलाभ होने पर भी और भी अधिक लाभ की आकांक्षा करता है वह अतिलोभनामका अतिचार है। अतिभारारोपण-लोभ के आवेश से अधिक भार लादना अतिभारारोपण अतिचार है । अतिभारारोपण अतिचार अहिंसाणुव्रत के अतिचारों में भी आया है । परन्तु वहाँ पर कष्ट देने का भाव है और यहां पर अधिक लाभ प्राप्ति की भावना है। इस प्रकार परिग्रह परिमाणवत के ये पाँच अतिचार कहे गये हैं।
विशेषार्थ-तत्वार्थसूत्र में क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, दासी-दास, धन-धान्य और कुप्यभाण्ड के परिमाण के अतिक्रम को परिग्रहपरिमाणवत के अतिचार कहे हैं । पुरुषार्थसिद्धच पाय में भी ऐसा ही कथन है। किन्तु इनके परिमाण का उल्लंघन कैसे किया जाता है। इसको पं० प्राशाधरजी ने स्पष्ट किया है। बाह्य परिग्रह को पाँच मानकर पाँच अतिचारों का सुखपूर्वक बोध कराने के लिए यहां वास्तु और क्षेत्र को मिला दिया है। क्षेत्र और वास्तु का जो परिमाण किया था उसका उल्लंघन करना जैसे-किसी ने नियम कर लिया कि मैं एक खेत और एक मकान रखूगा, बाद में पास का खेत और मकान खरीद लिया और वास्तु और क्षेत्र में बीचकी दीवार वगैरह हटाकर मकान में दूसरा मकान और खेत में दसरा खेत मिलाकर एक कर लिया। परिग्रह परिमाणवत के धारी श्रावक को देव-गुरु की साक्षीपूर्वक व्रत ग्रहण करते समय जीवन पर्यन्त के लिए सीमित की गई संख्या का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । 'मैं तो मकान वगैरह बढ़ाता हूँ, स्वीकार की गई संख्या को तो नहीं बढ़ाता ।' इस प्रकार की भावमा से परिमाण का अतिक्रम नहीं करना चाहिए । अन्यथा वास्तु-क्षेत्र प्रमाणातिक्रम नामका प्रथम अतिचार होता है । क्योंकि जो व्रत की अपेक्षा रखते हुए अपनी बुद्धि से व्रतभंग नहीं करता उसे ही अतिचार कहा है ।
इसी प्रकार सोना-चांदी के विषय में किसी ने नियम लिया कि मैं गले के दो हार, चार चूड़ियाँ, पैरों की दो जोड़ी पायल रखगा । पीछे चलकर लोभ सताने लगा तो सोने के आभूषणों में और सोना मिलवा लेना, चांदी के आभूषणों में और चांदी मिलाकर आभूषण बना लेना यहाँ आभूषण की संख्या तो नहीं बढ़ायी किन्तु वजन बढ़ा लिया, इस प्रकार भंगाभंग की अपेक्षा यह अतिचार बनता है। इसी प्रकार अन्य अतिचारों को भी समझना चाहिए। इस व्रत की रक्षा के लिए उमास्वामी आचार्य ने