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रत्नकरण्ड धावकाचार
लक्ष्मी कहलाती है। इस प्रकार श्री वर्धमान शब्द का अर्थ वृषभादि चौबीस तीर्थंकर होता है, उनके लिए मैं नमस्कार करता हूँ।
जिन अन्तिम तीर्थकर वर्धमान स्वामी अथवा वृषभतीर्थकरादि चौबीस तीर्थकरों को नमस्कार किया है, उनमें क्या विशेषता है इस बात को बतलाते हुए कहा है--निध तकलिलात्मने' अर्थात् जिनकी आत्मा से ज्ञानावरणादि कर्मरूप कलिलपापों का समूह नष्ट हो गया है, अथवा जिन्होंने अन्य भव्यात्माओं के कर्म-कलंक को नष्ट कर दिया है। जब यह जीव अपने दोषों का नाश कर देता है, तभी उसमें सर्वज्ञता प्रकट होती है और तभी वह हितोपदेश देने का अधिकारी होता है । इसलिये दूसरी विशेषता बतलाते हुए कहा है कि--'यद्विद्यासालोकानां त्रिलोकाना दर्पणायते' अर्थात जिनकी केवलज्ञानरूप विद्या अलोकाकाश सहित तीनों लोकों को प्रकाशित करने के लिये दर्पण के समान है। यथा--मनुष्य को अपना मुख अपनी चक्षु इन्द्रिय से नहीं दिखता उसी प्रकार जो पदार्थ इन्द्रिय गोत्रर नहीं हैं उन्हें केवलज्ञान दिखा देता है अर्थात् केवलज्ञान में त्रिकालवर्ती सभी पदार्थ झलकते हैं ।
__ यहां श्लोक के पूर्व में भगवान की सर्वज्ञता का उपाय बतलाया है और उत्तरार्ध में सर्वज्ञता का निरूपण किया गया है ।
विशेषार्थ—इस कारिका के सम्बन्ध में चार बातें ज्ञातव्य हैं-आस्तिकता, कृतज्ञता, आम्नाय और मंगल कामना ।
१. आस्तिक-शब्द का अर्थ 'अस्ति परलोक इति मतिर्यस्यासौ आस्तिकः' इस निरुक्ति के अनुसार जीवात्मा के अस्तित्व और परलोक आदि पर श्रद्धान रखने वाला आस्तिक कहलाता है ! यह पद्य ग्रन्थकर्ता की आस्तिकता को प्रकट करता है। जो जीवतत्त्व को नहीं मानता या जो निर्वाण अवस्था और उसके असाधारण कारणरूप धर्मों को स्वीकार नहीं करता, ऐसा नास्तिक बुद्धि का व्यक्ति सर्वज्ञ को नमस्कारादि करके अपनी श्रद्धा अभिव्यक्त नहीं कर सकता । अत: इस पद्य के द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्रन्थकर्ता को यह बात सर्वथा मान्य है कि सर्वज्ञता, वीतरागता और हितोपदेशरूप गुणों का धारक कोई एक व्यक्ति अवश्य है। साथ ही बह हम सब छमस्थ संसारी जीवों के लिए आदर्श है, निर्वाण मार्ग का प्रदर्शक है। अतएव हमारे लिए नमस्कार करने योग्य है ।