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रत्नकरण्ड श्रावकाचार 'अस्मरस्या' ब्रह्मानिवृत्त्यणुव्रतस्य । पंच व्यतीचाराः । कथमित्याह-अन्येत्यादिकन्यादानं विवाहोऽन्यस्य विवाहोऽन्यविवाहः तस्य आ समन्तात् करणं, तच्च अनंगक्रीडा च अंगं लिंग योनिश्च तयोरन्यत्र मुखादिप्रदेशे क्रीडा अनंगक्रीडा । विटत्वं भण्डिमा प्रधानकायवाक्प्रयोगः । विपुलतृट् च कामतीमाभिनिवे: । इत्वरिकागमनं च परपुरुषानेति गच्छतीत्येवंशीला इत्वरी पुश्चली कुत्सायों के कृते इत्वरिका भवति तत्र गमनं चेति ।।१४॥
अब ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार कहते हैं
( अन्यविबाहाकरणानंगक्रीडाविटत्वविपुलतषः ) अन्य विवाहाकरण, अनंगक्रीड़ा, विटत्व, विपुलतृषा (च) और ( इत्वरिकागमनं ) इत्वरिकागमन ( एते ) ये (पञ्च) पाँच (अस्मरस्य) ब्रह्मचर्याणवत के (ध्यतीचाराः) अतिचार (सन्ति) हैं ।
टोकार्थ----ब्रह्मचर्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं--अन्यविवाहाकरण- कन्यादान को विवाह कहते हैं । अपनी या अपने आश्रित बन्धुजनों की सन्तान को छोड़कर अन्य लोगों की सन्तान का विवाह प्रमुख बनकर करना, वह अन्य विवाहाकरण है। किन्तु सहधर्मीभाई के नाते उनके विवाह में सम्मिलित होने में कोई निषेध नहीं है। अनंग कोड़ा-कामसेवन के निश्चित अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से क्रीड़ा करना। विटत्वशरीर से कुचेष्टा करना और मुख से अश्लील भद्दे शब्दों का प्रयोग करना विटत्व है। विपुलतृषा-कामसेवन की तीव्र अभिलाषा रखना विपुलतृषा है। इत्यरिकाममनपरपुरुषरत व्यभिचारिणी स्त्री को इत्वरिका कहते हैं। ऐसी स्त्रियों के यहाँ आनाजाना उनके साथ उठना-बैठना तथा व्यापारिक सम्पर्क बढ़ाना आदि इत्वरिकागमन है।
विशेषार्थ-तत्त्वार्थसूत्र में ब्रह्मचर्याणवत के पाँच अतिचार बतलाये हैं, तद्यथा--. परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानंगक्रीड़ाकामतीवाभिनिवेशाः' अर्थात् परविवाहकरण, परिगृहीतेत्वरिकागमन, अपरिगृहीतेत्वरिकागमन, अनंगक्रीड़ा
और कामतीव्राभिनिवेश ये पांच ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार हैं। समन्तभद्रस्वामी ने परिगृहीतेत्वरिकागमन और अपरिगृहीतेत्वरिकागमन इन दो अतिचारों को एक इत्वरिकागमन में सम्मिलित कर बिटत्व को अलग गिनाया है। ब्रह्मचर्याणुव्रत का अति चार इत्वरिकागमन है जिसका कोई स्वामी नहीं है और जो गणिका या दुराचारिणी के रूप में पुरुषों के पास आती जाती है उसे इत्वरी कहते हैं। तथा जो प्रत्येक पुरुष के पास