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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १६१ जाती है वह इत्वरी है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार वेश्या भी इत्वरी है। इस इत्वरी शब्द से कुत्सा के अर्थ में 'क' प्रत्यय करने पर इत्वरिका शब्द बनता है। उसमें गमन करना अर्थात् उसका सेवन करना इत्वरिका गमन नामका अतिचार है ।
प्राचार्यसमन्तभद्र ने परदारनिवृत्ति और स्वदारसन्तोष को भिन्न नहीं माना है, एक ही माना है । उन्होंने नया विवाहारण, अरबीला, लिपस्ता, पुलतृषा और इत्वरिकागमन ये पांच अतिचार कहे हैं । और सोमवेवसूरि ने परस्त्रीसंगम, अनंगक्रीड़ा, अन्य विवाह, तीव्रता, और विटत्व इनको अतिचार कहा है। इन्होंने इत्वरिकागमन के स्थान पर परस्त्रीसंगम नाम दिया है ।
ब्रह्मचर्याणुव्रत की रक्षा के लिए तत्त्वार्थसूत्र में पांच भावनाओं का उल्लेख किया गया है।
__'स्त्रोरागकथा श्रवण तन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्म रणवष्येष्टरस स्वशरीर संस्कारत्यागाः पंच' अर्थात् स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाओं के सुनने का त्याग करना, उनके मनोहर अंगों के देखने का त्याग करना, पहले भोगे हुए भोगों के स्मरण का त्याग करना, गरिष्ठ एवं कामोत्तेजक पदार्थों के सेवन का त्याग करना और अपने शरीर की सजावट का त्याग करना इन भावनाओं से ब्रह्मचर्यव्रत सुरक्षित रहता है ॥ १४ ।। ६० ।।
अथेदानीं परिग्रहबिरत्यणुव्रतस्य स्वरूपदर्शयन्नाह - धनधान्यादिग्रन्थं परिमायततोऽधिकेषु निःस्पृहता। परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥१२॥१६11
'परिमितपरिग्रहो' देशतः परिग्रह विरतिरणुव्रतं स्यात् । कासौ ? या 'ततोऽधिकेष निस्पृहता' ततस्तेभ्य इच्छावशात् कृतपरिसंख्यातेभ्योऽर्थेभ्योऽधिकेष्वर्थेष या निस्पृहता वाञ्छाव्यावृत्तिः । किं कृत्वा ? 'परिमाय' देवगुरुपादाने परिमितं कृत्वा । कं ? 'धनधान्यादिनन्यं धनं गवादि, धान्यं ब्रीह्यादि । आदिशब्दाद दासी दासभागृह क्षेत्रद्रव्यसुवर्णरूप्याभरणवस्त्रादिसंग्रहः । स चासौ ग्रन्थश्च तं परिमाय । स च परिमितपरिग्रहः 'इच्छापरिमाण नामापि' स्यात्, इच्छायाः परिमाणं यस्य स इच्छापरिमाणस्तन्नाम यस्य स तथोक्तः ॥१५॥