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विशेषार्थ - जिनके साथ धर्मानुकूल विवाह हुआ है वे तो स्वस्त्री कहलाती हैं । इनके सिवाय जो अन्य स्त्रियाँ हैं वे परस्त्रियाँ कहलाती हैं । परस्त्री दो प्रकार की होती है - परिगृहीता और अपरिगृहीता । जो दूसरे के द्वारा विवाहित है, वह तो परिगृहीता है और जो स्वच्छन्द है, जिसका पति परदेश में है या अनाथ, कुलीन स्त्री है वह अपरिगृहीता है ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
कन्या का स्वामी भविष्य में होने वाला उसका पति है और वर्तमान में वह पिता के आधीन होने से सनाथ है । अतः वह भी अन्य स्त्री में आती है । पण्य स्त्री वेश्या को कहते हैं । इन दोनों प्रकार की स्त्रियों को जो पाप के भय से, न कि राजा या समाज के भय से मन-वचन-काय और कृत- कारित अनुमोदना से न तो स्वयं भोगता है और न दूसरों से ऐसा कराता है वह स्वदारसन्तोषी है | आचार्य ने परदारनिवृत्ति और स्वदारसन्तोष इन दो नामों का प्रयोग किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि ब्रह्मचर्याणुव्रत का धारक पुरुष देश-काल के अनुसार अपनी अनेक स्त्रियाँ हों तो उनका भी भोग कर सकता है, परस्त्रियों का नहीं ।
बुद्धिमान मनुष्य को मन-वचन-काय से विष बेल की तरह परस्त्री का त्याग करके स्वस्त्री में ही सन्तोष करना चाहिए, तथा काम से पीड़ित होने पर अपनी पत्नी का सेवन भी अति आसक्ति से नहीं करना चाहिए। शीत से पीड़ित मनुष्य यदि आग की लपटों का सेवन अति आसक्ति से करे तो अग्नि उसे जला देगी। कहा भी है-विषयसेवन का फल नपुंसकता या लिंगच्छेद है ऐसा जानकर बुद्धिमान को स्वदारसन्तोषी होना चाहिए और परस्त्रियों का त्याग करना चाहिए ।
यद्यपि स्वीकार किये गये व्रत को पालन करने वाले गृहस्थ को वैसा पाप बन्ध नहीं होता जैसा अव्रती को होता है, तथापि मुनिधर्म का अनुरागी ही गृहस्थ धर्म को पालता है । इसलिए मुनिधर्म धारण करने से पहले गृहस्थावस्था में भी जो काम - भोग से विरक्त होकर श्रावक धर्म को पालता है, उसे वैराग्य की अन्तिम सीमा पर ले जाने के लिये सामान्य से अब्रह्म के दोषों से बचना चाहिए ॥११३॥५६॥
तस्यातिचारान्नाह—
अन्यविवाहाकरणानंगक्रीडाविटत्वविपुलतुषः ।
seafterगमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीचाराः ॥ १४ ॥ १५