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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
भेक्ष्यशुद्धि - चरणानुयोग की पद्धति से भिक्षा की शुद्धि रखना ।
सधर्माविसंवाद - सहधर्मी जनों के साथ उपकरणादि के प्रसंग को लेकर विसंवाद नहीं करना । इन पाँच कार्यों से अचौर्याणुव्रत को रक्षा होती है। मुनि इन भावनाओं का साक्षात् प्रवृत्तिरूप से और गृहस्थ भावनारूप से पालन करते हैं ।। १२ ।। ५८ ॥
साम्प्रतंब्रह्म विरत्यणुव्रत स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह -
न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः स्वदार सन्तोषनामापि
॥ १३ ॥ १४ ॥
'सा परदारनिवृत्तिः' यत् 'परदारान्' परिगृहीतान परिगृहीतांश्च । स्वयं 'न च' नैव । गच्छति । तथा परानन्यान् परदारलम्पटान् न गमयति परदारेषु गच्छतो यत्प्रयोजयति न च । कुतः ? 'पापभीतेः' पावर्जनभयात् न युन. नृपत्यादिमयात् । न केवलं सा परदारनिवृत्तिरेवोच्यते किन्तु 'स्वदारसन्तोषनामापि स्वदारेषु सन्तोषः स्वदारसन्तोषस्तन्नाम यस्याः ||१३||
अब अब्रह्मत्याग अर्थात् ब्रह्मचर्याणुव्रत का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं
( यत् ) जो ( पापभीते: ) पाप के भय से ( परदारान् ) परस्त्रियों के प्रति ( न तु गच्छति ) न स्वयं गमन करता है । ( च ) और ( न परान ) न दूसरों को ( गमयति) गमन कराता है ( सा ) वह ( परदारनिवृत्तिः ) परस्त्री त्याग अथवा ( स्वदार सन्तोषनामापि ) स्वदारसन्तोष नामका अणुव्रत है ।
टोकार्थ- परदार शब्द का समास - परस्य दाराः परदारास्तान्' अर्थात् पर को स्त्री, अथवा पराश्यते दाराश्च परदारास्तान्' अर्थात् परस्त्रियाँ । यहाँ पर पहले समास में परके द्वारा गृहीत स्त्री को ग्रहण किया है और दूसरे में परके द्वारा जो ग्रहण नहीं की गई है ऐसी कन्या अथवा वेश्या का ग्रहण होता है । इस प्रकार परिगृहीत और अपरिगृहीत दोनों प्रकार की परस्त्रियों के साथ पापोपार्जन के भय से, न कि राजादिक के भय से, न स्वयं संगम करता है और न परस्त्री लम्पट अन्य पुरुषों को गमन कराता है वह परस्त्री त्याग अणुव्रत अथवा स्वदारसन्तोषवत कहलाता है ।