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अधिक लेना हीनाधिक मानोन्मान कहलाता है। अचौर्याव्रत का धारी मनुष्य इन सब अतिचारों से दूर रहकर अपने व्रतों की सुरक्षा करता है ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
विशेषार्थ - पहला अतिचार चोर प्रयोग- चोरी करने वाले को स्वयं या दूसरे के द्वारा 'तुम चोरी करो' अथवा जिसे प्र ेरणा नहीं दी है किन्तु उस चोर को कहना कि तुम अच्छा करते हो इस प्रकार अनुमोदना करना भी चोर प्रयोग है । अथवा चोरों की चोरी करने के औजार आदि देना या उनको बेचना भी चोर प्रयोग है यद्यपि जिसने - मैं न चोरी करूंगा और न कराऊंगा, इस प्रकार का व्रत लिया है उसके लिए चोर प्रयोगव्रत भंगरूप हो है । तथापि आजकल तुम खाली बेकार क्यों बैठे हो ? यदि तुम्हारे पास खाने को नहीं है तो मैं दे देता हूँ । यदि तुम्हारे चोरी के माल का कोई खरीददार नहीं है तो मैं बेचूंगा, इस प्रकार के वचनों से चोरों को चोरी के लिए प्रेरणा देते हुए भी वह अपने मन में ऐसा सोचता है कि मैं तो चोरी नहीं करता हूँ, इस प्रकार व्रत की अपेक्षा रखने से यह अतिचार है। दूसरा अतिचार है चौराहृत ग्रहण - जिस चोर को न तो चोरी करने की प्रेरणा दी थी और न अनुमोदना, ऐसे चोर के द्वारा लाये गये सुवर्ण वस्वादि को मूल्य देकर लेना। जो चोरी का माल छिपकर खरीदता है वह चोर होता है । और चोरी करने से व्रत भंग होता है, किन्तु ऐसा करने वाला समझता है कि मैं तो व्यापार करता हूँ चोरी नहीं । इस प्रकार के संकल्प से व्रत की अपेक्षा रखने से व्रत भंग नहीं होता, किन्तु एकदेशत्रत का भंग और एकदेश का अभंग होने से अतिचार होता है। तीसरा अतिचार है हीनाधिक मानोन्मान मापने के गज-बाट वगैरह को मान कहते हैं और तराजू को उन्मान कहते हैं । दो तरह के तराजू-बाट रखना एक हीन और एक अधिक । हीन या कम से दूसरों को देता है । अधिक से स्वयं लेता है । यह चौथा अतिचार है । प्रतिरूपकव्यवहार - प्रतिरूपक कहते हैं समान को । जैसे-घी का प्रतिरूपक चर्बी, तेल का प्रतिरूपक मूत्र | असली सोने का प्रतिरूपक नकली सोना चांदी । घी में चर्बी मिलाकर बेचना आदि प्रतिरूपकव्यवहार है । वस्तुतः इस प्रकार का काम पराये धन को लेने के लिए करने से चोरी है । किन्तु वह यह समझता है कि दूसरे के मकान में से धन लेना वगैरह ही चोरी प्रसिद्ध है । मैं तो व्यापार की कला मात्र करता हूँ इस भावना से व्रत को रक्षा का भाव होने से अतिचार कहा है । पाँचवां अतिचार विरुद्धराज्यातिक्रम राजा के द्वारा प्रजा पालन के योग्य कर्म को राज्य कहते हैं । वह राज्य नष्ट हो जाय या किसी के द्वारा अपने