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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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महार्घाणि द्रव्याणीति कृत्वा स्वल्पतरेणार्थेन गृह्णाति । सदृशसन्मिथश्च प्रतिरूपकव्यवहार इत्यर्थः सरोन तैलादिना सम्मिश्रं घृतादिकं करोति । कृत्रिमैश्च हिरण्यादिभिर्वचनापूर्वकं व्यवहारं करोति । होनाधिकविनिमानं विविधं नियमेन मानं विनिमानं मानोन्मानमित्यर्थः । मानं हि प्रस्थादि, उन्मानं तुलादि, तच्च हीनाधिकं, होनेन अन्यस्मै ददाति, अधिकेन स्वयं गृह्णातीति ॥ १२ ॥
अब, अणुव्रत के अतिचार कहते हैं—
( चौरप्रयोग चौरार्थादानविलोपसदृशसम्मिश्राः ) चीरप्रयोग, चौरार्थादान, विलोप, सशसन्मिश्र और ( हीनाधिकविनिमानं ) हीनाधिक विनिमान ( एते ) ये ( पञ्च ) पाँच ( अस्तेये ) अचौर्याणुव्रत में ( व्यतीपाताः ) अतिचार (सन्ति) हैं |
टीकार्थ - अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं, तद्यथा चोरी करने वाले चोर को स्वयं प्रेरणा देना, दूसरे से प्रेरणा दिलाना, और किसी ने प्रेरणा दी हो तो उसकी अनुमोदना करना चौर प्रयोग है। चौरार्थादान — जिसे अपने द्वारा प्रेरणा नहीं दी गई है, तथा जिसकी अनुमोदना भी नहीं की गई है ऐसे चोर के द्वारा चुराकर लायी हुई वस्तु को ग्रहण करना चौरार्थादान है। क्योंकि चोरी के माल को खरीदने से चोर को चोरी करने की प्रेरणा मिलती है। विलोप --- उचित न्याय को छोड़कर अन्य प्रकार के पदार्थ का ग्रहण करना इसे विलोप कहते हैं, इसे ही विरुद्ध राज्यातिक्रम कहते हैं । जिस राज्य में अन्य राज्य की वस्तुओं का आना-जाना निषिद्ध किया गया है, उसे विरुद्ध राज्य कहते हैं । विरुद्ध राज्य में महँगी वस्तुएँ अल्पमूल्य में मिलती हैं ऐसा समझकर वहाँ स्वल्प मूल्य में वस्तुओं को खरीदना, और अपने राज्य में अधिक मूल्य में बेचना विरुद्धराज्यातिक्रम कहलाता है । सरसन्मिश्र --- समानरूप-रंगवाली नकली वस्तु को असली वस्तु में मिलाकर असली वस्तु के भाव से बेचना, जैसे- घी में तल आदि मिश्रित करके बेचना, कृत्रिम बनावटी सोना-चांदी आदि के द्वारा दूसरों को धोखा देते हुए व्यापार करना सहवासन्मिश्र कहलाता है । हीनाधिकविनिमान - जिससे वस्तुओं का लेन-देन होता है इसको बिनिमान कहते हैं, मानोन्मान भी कहते हैं । जिसमें भरकर या तौलकर वस्तु दी जाती है उसे 'मान' कहते हैं जैसे- प्रस्थ, तराजू आदि । और जिससे नाप कर वस्तु ली या दी जाती है उसे उन्मान कहते हैं जैसेगज, फुट आदि । किसी वस्तु को देते समय कम देना हीन है और खरीदते समय