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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ १४७ आचार्य ने अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिसार, अनाचार के लक्षण इस प्रकार बतलाये हैं क्षति मनःशुद्धि विधेरतिक्रम, व्यतिक्रमं शीलबतेविलंघनम् । प्रभोऽतियार विषयेणु दर्तनं जवानाधारगिहातिसक्तताम् ॥६॥ अर्थ-मानसिक शुद्धि का नष्ट होना अतिक्रम है। शीलरूप बाड़ का उल्लंघन करना व्यतिक्रम है । विषयों में कदाचित् प्रवृत्ति करना अतिचार है और विषयों में अत्यन्त आसक्त हो जाना अनाचार है। यहाँ पर यह ध्यान अवश्य रखना है कि प्रमाद या अज्ञानदशा में जब कभी व्रतों में अतिचार (दोष) लग जाता है, तो उस दोष को दूर करने के लिए साधक प्रायश्चित्त, पश्चाताप का अनुभव करता है। किन्तु जब व्रत में बुद्धिपूर्वक बार-बार अतिचार लगता जाता है और साधक को पश्चाताप भी नहीं होता तो वह अतिचार अनाचाररूप से परिवर्तित हो जाता है । ___ आचार्यों ने व्रतों की रक्षा के लिए अतिचारों का वर्णन किया है। क्योंकि अतिचारों का निराकरण किये बिना व्रतों की रक्षा नहीं हो सकती। इसलिये उमास्वामी आचार्य ने अतों की रक्षा के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाओं का वर्णन किया है। अहिंसावत को भावमा--'बाह मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपान भोजनानि पञ्च' बचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन अहिंसाबत की इन पाँच भावनाओं से ही अहिंसावत की रक्षा हो सकती है। वचन को वश में रखने से वचनों के द्वारा होने वाली हिंसा टल जाती है । मन पर नियंत्रण रखने से अर्थात् मनमें हिंसात्मक भावों का विचार नहीं आने से मानसिक हिंसा से रक्षा हो जाती है। ईर्यासमिति-चार हाथ आगे देखकर चलने से, भावाननिक्षेपणसमितिउपकरणों को रखते, उठाते समय देख-भालकर रखने उठाने से तथा आलोकितपानभोजन-दिनमें देख शोधकर भोजन करने से, कायिक हिंसा से रक्षा हो जाती है।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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