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________________ १४६ ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार से पीटना, उचित भार से अधिक भार लादना तथा अन्न पानादिरूप आहार का निषेध करना अथवा थोड़ा देना । अहिसाणुव्रत के ये पांच अतिचार हैं । विशेषार्थ–'अतिचारोंऽश भञ्जनम्' के अनुसार अतिचार का अर्थ होता है व्रत का एकदेश भंग होना । मन, वचन काय तथा कृत, कारित, अनमोदना इन नौ कोटियों से व्रत की पूर्णता होती है। इन नौ कोटियों में से यदि किसी के द्वारा भी व्रतों में दूषण लगे तो वह अतिचार कहलाता है और प्रत को पूर्णरूप से दुषित करना अनाचार कहलाता है । रस्सो आदि से गाय, मनुष्य आदि को बाँधना बन्धन है । पुत्र आदि को भी विनीत बनाने के लिए माता-पिता बाँधते हैं किन्तु प्रबल कषाय के उदयरूप दुर्भावना से जो बन्धन किया जाता है, उसे छोड़ना चाहिए । बन्धन दोपायों या चौपायों का सप्रयोजन और निष्प्रयोजन होता है । इनमें निष्प्रयोजन बन्धन तो श्रावक को नहीं करना चाहिए। प्रयोजनवश किया भी जाय तो ढीली गाँठ लगाकर चौपायों को रखा जाय, जिससे सरलता से खोला जा सके और उन्हें कष्ट भी विशेषरूप से न हो । इसी प्रकार दुर्भावना से डण्डे, कोड़े आदि से पीटना, दुर्भावना से नाक, कान आदि अवयवों को काटना अतिचार है । किन्तु स्वास्थ्य के लिए फोड़े वगैरह को चीरना या हाथ-पाँव आदि अवयवों का काटना अतिचार नहीं है। । व्रती श्रावकों को दोपाये या चौपायों की सवारी से आजीविका करना छोड़ ही देना चाहिए यह उत्तम पक्ष है । यदि सम्भव न हो तो उतना ही भार लादा जाय जितना मनुष्य या पशु आसानी से वहन कर सके । आचार्यों ने तीन प्रकार की व्यवस्था बतलाई है । उत्तम, मध्यम और जघन्य । उत्तम व्यवस्था तो यह है कि व्रती मनुष्य गाय, भैंसादि को रखे ही नहीं, मध्यम यह है कि यदि रखे तो किसी बाड़े में उन्हें बिना बन्धन के रखे और जघन्य यह है कि यदि बन्धन देवे भी तो ऐसा लगावे जिससे आपत्ति आने पर जीव अपनी रक्षा स्वयं कर सके। प्राचार्य अमितति ने कहा है कि अतिचार सहित व्रतों का पालन पुण्य के लिए नहीं होता। क्या लोक में कहीं मलसहित धान्य को उपजते हुए देखा है ? अर्थात् नहीं।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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