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हिलाने से या श्वास लेने से न मरें अर्थात् मरते ही हैं । किन्तु जैन धर्म इस प्रकार के प्रत्येक जीव घात को हिंसा नहीं मानता। यहाँ सकषायरूप आत्मपरिणाम के योग से प्राणों के घात को हिंसा कहा है । जहाँ सकषायरूप आत्मपरिणाम नहीं हैं वहाँ प्राण घात हो जाने पर भी हिंसा नहीं है । जिस प्रकार ईर्यासमिति से चलने वाले साधु के अचानक कोई जन्तु उड़कर पैर के नीचे आकर मर जाता है तो भी उस साधु को जीवघात का पाप नहीं लगता क्योंकि उनके प्रमादयोग नहीं है, दे पूर्णरूप से सावधानी से चल रहे हैं, यदि असावधानी से प्रवृत्ति हो तो जीवों के नहीं मरने पर भी हिसा का पाप लगता है | अतः हिंसायुक्त परिणाम ही, वास्तव में, हिंसा है ||७||५३ ।।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
'तस्येदानी मतीचा रानाह
छेदनबन्धनपीडनमतिभारारोपणं व्यतीचाराः ।
आहारवारणापि च स्थूलवधाव् व्युपरतेः पञ्च ॥ ८॥
'व्यतीचारा' विविधा विरूपका वा अतीचारा दोषाः । कति ? 'पंच' | कस्य ? 'स्थूलवधाद् व्युपरते:' । कथमित्याह 'छेदनेत्यादि' कर्णनासिकादीनामवयवानामपनयनं छेदनं, अभिमतदेशे गतिनिरोध हेतुर्बन्धनं, पीडा दण्डकशाद्यभिघातः, अतिभारारोपणं न्याय्यभारादधिकभारारोपणं । न केवलमेतच्चतुष्टयमेव किन्तु ' आहारवारणापि च' आहारस्य अम्नपान लक्षणस्य वारणा निषेधो धारणा वा निरोधः ||८||
अहिंसा के अतिचार
(स्थूलवधात्र्युपरते :) अहिंसाणुव्रत के ( छेदनबन्धनपीडनम् ) छेदना, बांधना, पीड़ा देना, (अतिभारारोपणम् ) अधिक भार लादना ( अपि च ) और ( आहारवारणा ) आहार का रोकना अथवा ( आहारधारणा) आहार बचाकर रखना ये (पञ्च ) पाँच ( व्यतीचाराः ) अतिचार ( सन्ति ) हैं ।
टोकार्थ - विविधा विरूपका वा अतिचारा दोषाः व्यतिचारा:' इस समास के अनुसार व्यतीचार का अर्थ है - नाना प्रकार के अथवा व्रत को विकृत करने वाले
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दोष | ये अतिचार-दोष पाँच हैं । दुर्भावना से नाक, कानादि अवयवों को छेदना, इच्छित स्थान पर जाने से रोकने के लिए रस्सी आदि से बाँध देना, डण्डे कोड़े आदि