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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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' चारित्र' भवति । कासौ ? 'विरति' व्र्व्यावृत्तिः । केभ्यः 'हिंसानृतचौर्येभ्य:' ? हिंसादीनां स्वरूपकथनं स्वयमेवाग्रे ग्रन्थकारः करिष्यति । न केवलमेतेभ्य एव विरतिःअपि तु 'मैथुन सेवापरिग्रहाभ्यां । एतेभ्यः कथंभूतेभ्यः ? 'पापप्रणालिकाभ्यः पापस्य प्रणालिका इव पापप्रणालिका आस्रवणद्वाराणिताभ्यः । कस्य तेभ्यो विरतिः ? 'संज्ञस्य' सम्यग्जानातीति संज्ञः तस्य योपादेयतत्त्वपरिज्ञानवतः || ३||
यहाँ कोई कहता है कि 'साधु चरणं प्रतिपद्यते' साधु चारित्र को प्राप्त होता है यह तो कहा परन्तु चारित्र का लक्षण नहीं कहा, उसे कहो, ऐसी आशंका कर कहते हैं
( संज्ञस्य ) सम्यग्ज्ञानी जीव का ( पापप्रणालिकाभ्यः ) पाप के पनाले स्वरूप ( हिंसा नृतचीर्येभ्यः ) हिंसा, झूठ, चोरी (च ) और ( मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां ) कुशील तथा परिग्रह से ( विरति : ) निवृत्ति होना ( चारित्रम् ) चारित्र ( कथ्यते ) कहा जाता है ।
टीकार्थ - हिंसादि पापों के त्याग से चारित्र होता है। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन सेवन और परिग्रह इनके स्वरूप का कथन ग्रन्थकार आगे करेंगे, क्योंकि ये पापरूप गन्दे पानी को बहाने के लिए गन्दे नालों के समान हैं, इसलिए हेय और उपादेय तत्त्वों के ज्ञाता इन पापों से विरक्त होते हैं ।
विशेषार्थ - हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँचों कार्य पापासव के रास्ते हैं । इन कार्यों को करने से निरन्तर पापास्रव होता रहता है । सम्यग्ज्ञानी जीव इन पाप कार्यों को हेय जानकर इनसे विरक्त रहता है ।
यद्यपि निश्चय चारित्र तो बहिरंग समस्त प्रवृत्तियों के छूटने से परमवीतरागता के प्रभाव से परमसाम्यभाव को प्राप्त होने पर अपने एक ज्ञायक भावरूप स्वभाव में चर्या रूप है किन्तु हिंसादि पंच पापों से विरक्त हुए बिना, अन्तरंग - बहिरंग प्रवृत्ति की उज्ज्वलतारूप व्यवहारचारित्र के बिना निश्चय चारित्र प्राप्त नहीं हो सकता है । इसलिए इन हिंसादि पाँचों पापों का त्याग करना ही श्रेष्ठ है, पंच पापों का पूर्ण रूप से त्याग करना ही चारित्र है ||३||४६ ।।
तच्चेत्थंभूतं चारित्रं द्विधा भिद्यत इत्याह-