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रत्नकरण्ड श्रावकाचार होने पर हिंसादि पापों का त्यागरूप चारित्र होता है। तदनन्तर आगामीकाल में उत्पन्न होने वाले रागादि भावों की निवृत्ति भी हो जाती है, इसी प्रकार आगे-आगे प्रकृष्ट से प्रकृष्टतर और प्रकृष्टतम निवृत्ति होती जाती है। तथा ऐसा होने पर हिंसादि पापों की स्वयं निवृत्ति हो जाती है। देशसंयतादि गुणस्थानों में रागादिभाव और हिंसादि पापों की निवृत्ति वहाँ तक होती जाती है जहाँ तक कि पूर्णरूप से रागादिका क्षय और उससे होने वाली समस्त हिंसादि पापों के त्यागरूप लक्षण वाला परम उदासीनता स्वरूप परमोत्कृष्ट चारित्र होता है। इसी अर्थ का समर्थन करने के लिए अर्थान्तरन्यास द्वारा दृष्टान्त देते हैं कि-'अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नपतीनु' अर्थात् जिसे किसी भी अभिलषित फल की चाह नहीं है, ऐसा कौनसा पुरुष राजाओं की सेवा करता है ? अर्थात् कोई बुद्धिमान् मनुष्य नहीं करता ।
विशेषार्थ-चारित्र धारण करने का पूल देश्य राग-द्वेषादि की निवृत्ति करना है। हिंसादि पापों में प्रवृत्ति राग-द्वेष के कारण ही होती है, जिसने रागद्वेष की प्रवृत्ति छोड़ दी, उसके हिंसादि पंच पापों का त्याग स्वयमेव हो जाता है ।
रागद्वेष की उत्पत्ति का प्रमुख कारण मिथ्यात्व और अज्ञान है, मिथ्यात्व के कारण ही यह जीव परपदार्थों को सुख-दुःख का कारण मानता हुआ हर्ष, विषाद करता रहता है । जो पदार्थ सुखद प्रतीत होते हैं उनका संयोग मिलने पर हर्षित होता है और उन पदार्थों में राग करता है। जिन पदार्थों से दुःख उत्पन्न होता है उनको दुःख उत्पत्ति का कारण मानकर द्वेष करता है। किन्तु सुख-दुःख का अन्तरंग कारण स्वोपाजित शुभ-अशुभ कर्म है। अज्ञानतावश प्राणी अन्तरंग कारणों की ओर दृष्टि नहीं रखता हुआ मात्र बहिरंग निमित्तों को ही महत्व देता हुआ कुटुम्बीजन या मियादिजनों के साथ मित्रता या शत्रुता रखता हुआ गग-द्वेष करता है। इसलिए राग-द्वेष को दूर करने के लिए पहले मिथ्यात्व और मिथ्याज्ञान को दूर करके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए तत्पश्चात् समीचीन चारित्र की प्राप्ति सरल हो जाती है ।। २ ।। ४८ ।।
अत्रापरः प्राह-चरणं प्रतिपद्यत इत्युक्तं तस्य तु लक्षणं नोक्त तदुच्यता, इत्याशंक्याह
हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥३॥