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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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दी है । जिस प्रकार अन्धकार में नेत्र से देखने की शक्ति नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय से जीव की दर्शनशक्ति - समीचीन श्रद्धान करने रूप शक्ति सामर्थ्य प्रकट नहीं हो सकती । किन्तु जैसे ही मिथ्या अन्धकार दूर होकर समीचीन श्रद्धान प्रकट होता है तब उसे सही दिशा का बोध होता है । पर पदार्थों में जो एकत्वभाव चल रहा था वह नष्ट होकर स्व-पर का सही श्रद्धान हो जाता है तब मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है और तत्पश्चात् राग-द्वेष को दूर करने के लिए समीचीन चारित्र की शरण लेता है । समीचीन चारित्र से ही जीव का कल्याण होता है || १ ||४७||
निवृत्ताने हिंसादिनिवृत्त: संभवादित्याह—
रागद्वेषनिवृत्त हिंसादि निवर्त्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥ २ ॥
'हिंसादे: निवर्तना' व्यावृत्तिः कृता भवति । कुत: ? 'रागद्वेषनिवृत्त ेः । अयमत्र तात्पर्यार्थः — प्रवृत्तरागादिक्षयोपशमादेः हिंसादिनिवृत्ति लक्षणं चारित्रं भवति । ततो भाविरागादिनिवृत्त रेवं प्रकृष्टतरप्रकृष्टतमत्वात् हिंसादि निवर्तते । देशसंयतादिगुणस्थाने रागादिहिंसादिनिवृत्तिस्तावद्वर्तते यावन्निःशेषरागादिप्रक्षयः तस्माच्च निःशेषहिंसादि निवृत्तिलक्षणं परमोदासीनतास्वरूपं परमोत्कृष्टचारित्रं भवतोति । अस्यैवार्थस्य समर्थनार्थमर्थान्तरन्यासमाह - 'अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन्' अनपेक्षितानभिलषिता अर्थस्य प्रयोजनस्य फलस्य वृत्तिः प्राप्तिर्येन स तथाविधः पुरुषः को, न कोऽपि प्रेक्षापूर्वकारी, सेवते नृपतीन् ||२||
आगे रागद्वेष की निवृत्ति होने पर ही हिंसादि पापों से निवृत्ति हो सकती है, यह कहते हैं—
( रागद्वेष निवृत्ती : ) रागद्वेष की निवृत्ति होने से ( हिंसादिनिवर्तना) हिंसादि पापों से निवृत्ति ( कृता भवति ) स्वयमेव हो जाती है क्योंकि ( अनपेक्षितार्थवृत्तिः ) जिसे किसी प्रयोजनरूप फल की प्राप्ति अभिलषित नहीं है, ऐसा ( कः पुरुषः ) कौन पुरुष (नृपतीन् सेवते ) राजाओं की सेवा करता है ? अर्थात् कोई नहीं ।
टोकार्थ - रागद्वेष की निवृत्ति से हिंसादि पापों की निवृत्ति स्वतः हो जाती है । तात्पर्य यह है कि वर्तमान में जिन रागादि भावों की प्रवृत्ति है उनका क्षयोपशमादि