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रत्नकरण्ड श्रावकाचार कहते हैं कि मोह-दर्शनमोह-मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का अपहरण-यथा सम्भव उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाने पर जिसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है और सम्यक्त्व की प्राप्ति होने से जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसा भव्य पुरुष रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र धारण करता है। अथवा, 'मोहोदर्शनचारित्रमोहस्तिमिरं ज्ञानावरणादि तयोरपहरणे' अर्थात् मोह का अर्थ दर्शनमोह तथा चारित्रमोह इन दो भेदों से उपलक्षित मोहकर्म और तिमिर शब्द का अर्थ ज्ञानावरणादि कर्म है, जब इन दोनों का अभाव हो जाता है तभी जीव को सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है । तात्पर्य यह है कि-दर्शनमोह का अभाव हो जाने से सम्यग्दर्शन का लाभ होता है और ज्ञानावरणादि के अभाव-क्षयोपशम होने से ज्ञान प्राप्त होता है । सम्यग्दर्शन के प्रसाद से ज्ञान में समीचीनपने का व्यवहार होता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को जिस भव्यात्मा ने प्राप्त कर लिया है वह चारित्रमोहरूप राग-द्वेष को दूर करने के लिए चारित्र को प्राप्त करता है ।
विशेषार्थ-हिंसादि पंच पापों से निवृत्ति होने को चरण या चारित्र कहते हैं । किन्तु भव्य जीव इस चारित्र को किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं ? इसका समाधान करते हुए कहा है कि संसारी जीवों के अनादिकाल से दर्शनमोहरूप तीव्र अन्धकार से ज्ञानरूपी नेत्र आच्छादित हैं अतः स्व-पर के भेदविज्ञान से रहित होता हआ जीव चारों गतियों के अन्तर्गत चौरासी लक्ष योनियों में ममत्व बुद्धि के कारण अनन्तकाल से परिभ्रमण कर रहा है ।
कदाचित काललब्धि के मिलने पर किसी भव्य जीव के करणलन्धि आदि योग्य सामग्री के द्वारा दर्शनमोह का उपशम, क्षय, क्षयोपशम होने पर जिसे सम्यग्दर्शन को प्राप्ति हुई है और सम्यक्त्व की प्राप्ति होने से जिसने सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर लिया है. ऐसा भव्य जीव राग-द्वेष को दूर करने के लिए चारित्र को धारण करता है।
इस प्रकार इस कारिका में आचार्यश्री ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की प्राप्ति के क्रम और प्रयोजन का दिग्दर्शन किया है। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं दर्शनमोह और चारित्रमोह । दर्शनमोहमिथ्यात्व के उदय से यह जीव पर-पदार्थो में अहं बुद्धि रखता है। अर्थात् अपने को शरीरादिरूप मानता है और चारित्रमोह के उदय से स्त्री-पुत्रादि पर-पदार्थों में ममत्व बुद्धि रखता है अर्थात ये मेरे हैं, इस प्रकार के भावों को जागृति होती है। इसलिए मोह को अन्धकार की उपमा