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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
सकलं विकलं चरणं, तत्सकलं सर्वसंग विरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ॥ ४ ॥
हिंसादिविरतिलक्षणं यच्चरणं' प्रावप्ररूपितं तत् सकलं विकलं च भवति । तत्र 'सकल' परिपूर्णं महाव्रतरूपं । केषां तद्भवति ? 'अनगाराणां' मुनीनां । किविशिष्टानां 'सर्व संगविरतानां' बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितानां । 'विकल' परिपूर्ण अणुव्रतरूपं । केषां तद्भवति 'सागराणां' गृहस्थानां । कथम्भूतानां ? 'ससंगानां' संग्रन्थानाम् ||४||
ऐसा चारित्र दो प्रकार का है, यह कहते हैं
(तत्) वह (चरण) चारित्र ( सकल विकल ) सकल चारित्र और विकल चारित्र के भेद से दो प्रकार का है । उनमें से ( सकलं ) सम्पूर्ण चारित्र ( सर्वसंगविरतानां ) समस्त परिग्रहों से रहित ( अनगाराणां ) मुनियों के और ( विकलं ) एकदेश चारित्र ( ससंगानां ) परिग्रहयुक्त ( सागाराणां ) गृहस्थों के (भवति) होता है ।
टीकार्थ - हिंसादि पापों के त्यागरूप लक्षण से युक्त जिस चारित्र का पहले वर्णन किया है वह चारित्र सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का होता है । उनमें सकलचारित्र परिपूर्ण महाव्रतरूप कहा है, जो बाह्य और अभ्यन्तर समस्त परिग्रह के त्यागी मुनियों के होता है । विकलचारित्र देशचारित्ररूप है, जो पंच अणुव्रत के धारक परिग्रह से सहित गृहस्थों के होता है ।
विशेषार्थ - आत्मा के चारित्र गुण का घात करने वाला चारित्रमोहनीय कर्म है | चारित्र के दो भेद हैं- देशवारित्र और सकलचारित्र | सकलचारित्र का घात करने वाली प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ ये कर्म प्रकृतियाँ हैं । और विकलचारित्र - देशचारित्र का घात करने वाली अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ ये कर्म प्रकृतियाँ हैं । जब किसी सम्यग्दृष्टि जीव के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षयोपशम होता है तब उस जीव के हिंसादि पाँच पापों के एकदेशत्यागरूप अणुव्रत होता है । यह विकलचारित्र कहलाता है और जब किसी सम्यक्त्वी के प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षयोपशम होता है तब उसके पंच पापों का पूर्ण त्याग हो जाने से सकलचारित्र होता है । सकलचारित्र के धारक गृह कुटुम्ब परिग्रह से रहित निर्ग्रन्थ मुनिराज होते हैं तथा विकलचारित्र परिग्रह से सहित गृहस्थ