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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
(द्रव्यानुयोगदीपः) द्रध्यानुयोगरूपी दीपक (जीवाजीवसुतत्त्वे) जीव, अजोव प्रमुख तत्त्वों को (पुण्यापुण्ये च) पुण्य और पापको (बन्धमोक्षी) बन्ध और मोक्ष को तथा चकार से आस्रव संवर और निर्जरा को ( श्रुतविद्यालोकं ) भावश्रु तज्ञानरूप प्रकाश को फैलाता हुआ (आतनुते) विस्तृत करता है।
टोकार्थ---'द्रव्यानुयोग दीपो' द्रव्यानुयोग सिद्धान्त सूत्रतत्त्वार्थसूत्रादिरूप द्रव्यागमरूपदीपक उपयोग लक्षण वाला जीव द्रव्य कहलाता है। इससे विपरीत उपयोग लक्षण से रहित अजोबद्रव्य है । सातावेदनीय, शुभायु, शुभनाम और शुभगोत्र ये पुण्य कर्म कहलाते हैं । इससे विपरीत असातावेदनीय, अशुभायु, अशुभनाम और अशुभगोत्र ये पाप कर्म कहलाते हैं। इन सबके भूल प्रकृश और उत्तर प्रकृति के भेद से अनेक भेद हैं । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप हेतुओं से आत्मा और कर्म का जो परस्पर संश्लेष होता है, उसे बन्ध कहते हैं, बन्ध के हेतुओं के अभावरूप संवर और निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना मोक्ष कहलाता है। श्लोक में आये हुए 'च' शब्द से आस्रव, संवर, निर्जरा का भी ग्रहण होता है। इस प्रकार द्रव्यानयोगरूपी दीपक नौ पदार्थों को श्रुतविद्या-भाव तज्ञानरूपी प्रकाश प्रकाशित करता है अर्थात् जानता है ।
विशेषार्थ-जिस अनुयोग में छह द्रव्य, सात तत्त्व नौ पदार्थ तथा पञ्चास्तिकाय का विस्तार से वर्णन हो उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं ।
आग्रायणीय पूर्व में सातसौ सुनय तथा दुर्नय, पञ्चास्तिकाय, षड्द्रव्य सप्ततत्त्व नौ पदार्थ आदि का वर्णन है । इससे द्रव्यानुयोग के अनेक शास्त्रों की रचना हुई है । जैसे तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, राजवातिक, श्लोकवार्तिक, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार आदि । इस तरह मोक्षाभिलाषी पुरुष चारों अनुयोगों में समानरूप से श्रद्धान रखते हैं और अपने ज्ञान का विकास करते हैं ।। ५।।४६।।
इस प्रकार समन्तभद्रस्वामिविरचित उपासकाध्ययन की प्रभाचन्द्र-विरचित
टीका में द्वितीय परिच्छेद (ज्ञानाधिकार) पूर्ण हुआ।