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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १३१ अन्य भी इसी तरह की क्रियाओं के करने पर भी पाप का बन्ध नहीं होता ? इत्यादि प्रश्नों के अनुसार यत्नपूर्वक आचरण करें, यत्नपूर्वक खड़े हो । यत्नपूर्वक बैठे। यत्नपूर्वक शयन करें । यत्नपूर्वक भाषण करें। यत्नपूर्वक भोजन करें। इस तरह से पाप का बन्ध नहीं होता। अर्थात् किसी भी क्रिया के यत्नाचारपूर्वक प्रमाद रहित होकर करने पर पाप का बन्ध नहीं होता। इत्यादि उत्तररूप धाक्यों के द्वारा मुनियों के समस्त आचरण का वर्णन है।
सातवें उपासायन मांग में- श्रावकों के सायग्दर्शनादि ग्यारह प्रतिमा सम्बन्धी व्रत, गुण, शील, आचार तथा अन्य भी क्रियाकाण्डों का सविस्तार वर्णन है। इस प्रकार श्रावक एवं मुनिधर्म का वर्णन करने वाले इन अंगों से चरणानुयोग के अनेक शास्त्रों की रचना हुई है । जैसे—उपासकाध्ययन, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अमितगति श्रावकाचार, सागारधर्मामृत, अनगारधर्मामृत, मूलाचार तथा भगवती आराधना आदि चरणानुयोग के प्रमुख ग्रन्थ हैं ।।४।।४५॥
जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च ।
द्रव्यानुयोगवीपः श्रुतविद्यालोकमातनुते ।।५।। 'द्रव्यानुयोगदीपो' द्रव्या योगसिद्धान्तसूत्रं तत्त्वार्थसूत्रादिस्वरूपो द्रव्यागमः स एव दीपः स । 'आतनुते' विस्तारयति अशेषविशेषतः प्ररूपयति । के ? 'जीवाजीवसूतत्त्वे' उपयोगलक्षणो जीव: तद्विपरीततोऽऽजीवः ताव शोभने अबाधिते तत्वे वस्तूस्वरूपे आतनुते । तथा 'पुण्यापुण्ये' सद्य शुभायुर्नामगोत्राणि हि पुण्यं ततोऽन्यत्कर्मापुण्यमुच्यते, ते च मूलोत्तर प्रकृतिभेदेनाशेषविशेषतो द्रव्यानुयोगदीप आतनुते । तथा 'बन्धमोक्षौ च मिथ्यात्वाविरति प्रमादकषाय योगलक्षण हेतु क्शानुपाजितेन कर्मणा सहात्मनः संश्लेषो बन्धः बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षलक्षणो मोक्षस्तावप्यशेषत: द्रव्यानयोगदीप आतनुते । कथं ? थ्रतविद्यालोकं श्रतविद्या भावध तं सैवालोकः प्रकाशो यत्र कर्मणि तद्यथाभवत्येवं जीवादीनि स प्रकाशयतीति ॥५॥ इति प्रभाचन्द्रविरचितायां समन्तभद्रस्वामिविरचितोपासकाध्ययन
टीकायां द्वितीयः परिच्छेदः ॥ २ ॥ आगे द्रव्यानुयोग का स्वरूप कहते हैं