SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ १२९ टोकार्थ-जिस प्रकार सम्पन सहान पथमानुयोग को जानता है उसी प्रकार करणानयोग को भी जानता है । करणानुयोग में लोक-अलोक का विभाग तथा पंचसंग्रह आदि भी समाविष्ट है। यह करणानुयोग दर्पण के समान है। अर्थात जिस प्रकार दर्पण मुख आदि के यथार्थ स्वरूप का दर्शक है, उसी प्रकार करणानुयोग भी स्व विषय का प्रकाशक होता है। जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं उसे लोक कहते हैं । यह लोक तीन सौ तेतालीस राजू प्रमाण है । इससे विपरीत अनन्त प्रमाणरूप जो शुद्ध-परद्रव्यों के संसर्ग से रहित आकाश है वह अलोक कहलाता है। उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी आदि काल के भेदों को युग कहते हैं । इनमें सुषमादि छह काल का परिवर्तन होता है वह युगपरिवर्तन है, नरक, तिथंच, मनष्य देवादि लक्षण वाली चार गतियां हैं। करणानुयोग इन सबका विशद वर्णन करने के लिए दर्पण के समान है। विशेषार्थ-जिसमें अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक का वर्णन होता है, जगच्छेणी, जगत्प्रतर और मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, तथा पर्वत, नदी, सरोवरादि हैं, इन सभी के विस्तार को निकालने के लिए करणसूत्रों-गणितसूत्रों का वर्णन होता है, उसे करणानुयोग कहते हैं। इसी प्रकार जीव को अशुद्धावस्था का वर्णन, गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीबसमास आदि के माध्यम से किया जाता है। जीव द्रव्य की यद्यपि दो अवस्थायें हैं, किन्तु यह जीव की अशुद्ध-संसारावस्था का ही प्रधानता से वर्णन करता है । अनादिकाल से किन-किन कारणों से इस जीवात्मा की कैसी-कैसी अवस्थाएँ हो रही हैं और उनमें से वह अपने शुद्धस्वरूप को किस तरह से प्राप्त कर सकता है, इस प्रकार आत्मा की हेय-उपादेय दो अवस्थाओं में से प्रथम हेयरूप, परनिमित्तक, आकुलता एवं दुःखस्वरूप पराधीन अवस्था का और उससे विपरीत इन अवस्थाओं से रहित होने के कारण शुद्ध, मुक्त निराकुल सुखस्वरूप अपनी अनन्त स्वाधीन उपादेय अवस्था का भी प्रत्यय कराता है। अशुद्ध निश्चयनय के विषयभूत इस वर्णन को सर्वथा हेय कहकर उस पर से मिथ्यात्व एवं प्रमत्तबुद्धि को हटाकर अपने समीचीन शुद्ध स्वरूप में उपयुक्त होने और उसी में सावधानतया स्थिर रहने का उपदेश देता है इस प्रकार चारों गतियों के जीवों की दशा का वर्णन करने वाला करणानयोग है। पटखण्डागम-जीवस्थान, खुद्दाबन्ध, बंधस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखंड, महाबन्ध,
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy