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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
माध्यम से वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन करने वाला यह अंग प्राथमिक जीवों के लिए अत्यन्त हितकारक है । इसको सुनकर जीवों को बोधि-समाधि की प्राप्ति होती है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को बोधि कहते हैं और तत्त्वों का अच्छी तरह बोध होना अथवा धर्मध्यान-शुक्लध्यान को प्राप्त करना समाधि है । प्रथमानुयोग बोधिसमाधि का खजाना है । प्रथमानुयोग में सत्य-कथाओं का वर्णन है। इसमें उपन्यास की तरह कपोल कल्पित कथाएं नहीं हैं। तीर्थंकर चक्रवर्ती बलभद्रादि महापुरुषों के जीवनवृत्त को पढ़ने से मन पवित्र होता है तथा हेयोपादेय का विवेक जागृत होता है। संसारासक्त जीवों की क्या दशा होती है तथा अनासक्त जीवों की कैसी स्थिति होती है यह सब पुराण पुरुषों की जीवनी का वर्णन करने वाले महापुराण, उत्तरपुराण, पद्मपुराण, प्रद्युम्नचारित्र आदि का अध्ययन करने से विदित होता है ।।२॥४३॥
तथालोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च ।
आदमिव तथामतिरवैति कारणानुयोग च ॥३॥
'तथा' तेन प्रथमानुयोगप्रकारेण । मतिर्मननं श्रु तज्ञानं । अवंति जानाति । कं ? 'करणानुयोग' लोकालोकविभाग पंचसंग्रहादिलक्षणं । कथंभूतमिव ? 'आदर्शमिव यथा आदर्शो दर्पणो मुखादेर्यथावत्स्वरूप प्रकाशकस्तथा करणानुयोगोऽपि स्वविषयस्यायं प्रकाशक: । 'लोकालोकविभक्तेः' लोक्यन्ते जीवादय: पदार्था यत्रासौ लोकस्त्रिचत्वारिंशदधिकशतत्रयपरिमितरज्जुपरिमाणः, तद्विपरीतोऽलोकोऽनन्तमानावच्छिन्न शुद्धाकाशस्वरूपः तयोविभक्तिविभागो भेदस्तस्याः आदर्शमिव । तथा 'युगपरिवृत्त:' युगस्य कालस्योत्सपिण्यादेः परिवृत्तिः परावर्तनं तस्या आदर्शमिव । तथा 'चतुर्गतीनां च' नरकतिर्यरमनुष्यदेवलक्षणानामादर्शमिव ।।३।।
करणानुयोग का लक्षण
(तथा) प्रथमानुयोग की तरह (मतिः) मननरूप श्रु तज्ञान, ( लोकालोकविभक्तेः) लोक और अलोक के विभाग (युगपरिवृत्त:) युगों के परिवर्तन (च) और (चतुर्गतीनां) चारों गतियों के लिए (आदर्शमिव) दर्पण के समान (करणानुयोगं च) करणानुयोग को भी (अवैति) जानता है ।