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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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(यत्) जो पदार्थ को ( अन्यूनं ) न्यूनता रहित ( अनतिरिक्त) अधिकता रहित ( यथातथ्यं ) ज्यों का त्यों ( विपरीतात् ) विपरीतता ( विना ) रहित (घ) और ( निःसन्देहं ) सन्देह रहित (वेद) जानता है (तत्) उसे ( आगमिनः ) आगम के ज्ञाता पुरुष ( ज्ञानं ) सम्यग्ज्ञान ( आ ) कहते हैं ।
टोकार्थ - ज्ञान शब्द से यहाँ भावश्रुत ज्ञान विवक्षित है । सर्वज्ञ जानने को ज्ञान कहते हैं । सम्यग्ज्ञान पदार्थों को सन्देह रहित जानता है, और वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा ही जानता है, विपरीतता रहित जानता है, न्यूनता रहित समस्त वस्तु स्वरूप को जानता है अर्थात् परस्पर विरोधी नित्यानित्यादि दो धर्मों में से किसी एक को छोड़कर नहीं जानता किन्तु उभय धर्मों से युक्त पूर्ण वस्तु को जानता है, अधिकता रहित जानता है अर्थात् वस्तु में नित्य एकान्त अथवा क्षणिकएकान्त आदि जो धर्म अविद्यमान हैं, उनको कल्पित करके नहीं जानता, यदि कल्पित करके जानेगा तो अधिक अर्थ को जानने वाला हो जायेगा |
अतः इन चार विशेषणों से सहित ज्ञान यथावत् वस्तुतत्त्व को जानता है । इस तरह स्याद्वादरूप श्रुतज्ञान भी जीवादि समस्त पदार्थों को उनकी सब विशेषताओं सहित जानता है, क्योंकि उसमें भी केवलज्ञान के समान पूर्णरूप से वस्तुस्वरूप को प्रकाशित करने का सामर्थ्य है । कहा भी है
'स्याद्वादरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान ये दोनों ही समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले हैं । इनमें भेद केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष की अपेक्षा है अर्थात् केवलज्ञान प्रत्यक्षरूप से जानता है और श्रुतज्ञान परोक्षरूप से जानता है । जो श्रुतज्ञान वस्तु के एक धर्म को ही ग्रहण करता है वह अवस्तु अर्थात् मिथ्या होता है ।
इस प्रकार यहाँ भाव तज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान ही धर्म शब्द से अभिप्र ेत है क्योंकि वही मूलकारण होने से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त कराने का सामर्थ्य रखतर
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विशेषार्थ - मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों का सर्वज्ञ ने जैसा वर्णन किया है उसको संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित जैसे - का तैसा जानने वाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्ज्ञान के मति श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान के भेद से पांच भेद हैं। इनमें से आदि के चार ज्ञान तो क्षायोपशमिक हैं । वे अपनेअपने प्रतिपक्षी मतिज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम से होते हैं और केवलज्ञान क्षायिक
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