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रत्नकरण्ड श्रावकाचार है। आदि के तीन ज्ञान समीचीन भी होते हैं और मिथ्या भी होते हैं। मिथ्या होने का अन्तरंग कारण मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय है।
यहाँ पर जो ज्ञान का कथन किया है उससे भावश्रुतज्ञान का ग्रहण किया है। मनुष्य जो बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ करते हैं, वह पुरुषार्थ समीचीन शास्त्रों के स्वाध्याय के द्वारा भाव तज्ञान को प्राप्त करने के लिए होता है। अवधिज्ञान, मनःपर्यय और केवलज्ञान बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं होते। किन्तु प्रतिपक्षी आवरणों के अभाव में स्वयं प्रकट हो जाते हैं । यद्यपि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है । तथापि वह मतिज्ञान इतना साधारण ज्ञान है कि वह श्रु तज्ञान के अवलम्बन के बिना मोक्षमार्ग में सहायक नहीं होता। इस प्रकार बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ के द्वारा भाव तज्ञान ही प्राप्त किया जा सकता है। तथा भावशूत ज्ञान का विकास द्रव्यश्रुत के आधार से होता है अतः मनुष्यों को चाहिए कि वे द्रव्यश्रु त के अभ्यास का सतत अध्ययन मनन चिन्तन करें । द्रव्यश्रत बह है जो अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व का वर्णन स्याद्वादशैली से करता है। बिना स्याद्वाद के वस्तुतत्त्व का अन्यून, अनतिरिक्त, अविपरीत, निःसन्देह और यथार्थज्ञान नहीं हो सकता।
यदि कोई कहे कि वस्तु को न्यूनता और अधिकता आदि से रहित ज्यों का स्यों तो केवलज्ञान ही जान सकता है, अन्य ज्ञानों में वह सामर्थ्य नहीं है तो सम्यग्ज्ञान का यह लक्षण सदोष ठहरेगा, किन्तु यहाँ केवलज्ञान की विवक्षा नहीं है, भावध तज्ञान की विवक्षा है । यहाँ अन्यून, अनतिरिक्त आदि से रहित का इतना ही अर्थ लेना चाहिए कि वस्तु में रहने वाले जितने भी धर्म हैं उनको छोड़ा नहीं जावे और जो धर्म वस्तु में नहीं है उनको न माना जावे । स्याद्वाद, वस्तु का कथन करते समय जिसकी विवक्षा है उसे मुख्य और जिसकी विवक्षा नहीं है उसे गौण कर कथन करता है, सर्वथा छोड़ता नहीं।
भावभुतज्ञान का आधारभूत द्रव्यश्रुत प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इस प्रकार चार भेदों में विभक्त है ।।१॥४२॥
तस्यविषयभेदाद भेदान् प्ररूपयन्नाहप्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥२॥