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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
शुदुजानादि गुणों के अखाह पिण्डरूप में विद्यमान रहते हुए भी वे परसंबंध निमित्तक माने जाने वाले सभी भेदों से एकांततः विमुक्त हैं, परन्तु ऐसा होते हुए भी आगम में भूतप्रज्ञापननय की अपेक्षा उनमें भी अनेक प्रकार से भेदब्यवहार का उल्लेख पाया जाता है, उसी प्रकार यहां इस कारिका के आशय को भी समझना चाहिए । यों तो अपने शुद्ध गुणधर्म की अपेक्षा संसार से मुक्त हो जाने वाले सिद्धों में कोई अन्तर नहीं है, सब एकरूप हैं। फिर भी उनमें पूर्व पर्याय के आश्रय से भेद भी पाया जाता है। आशय यह है कि सम्यग्दर्शन के निमित्त से जो संसार में रहते हुए छह परमस्थानों का लाभ हुआ करता है, उनकी अपेक्षा सातवें परमस्थान में भी भेद कहा गया है । क्योंकि सम्यग्दर्शन के निमित्त से शिवपर्याय को जो जीव प्राप्त करता है उसमें पहले तीन पदसज्जाति, सद्गृहस्थता और पारिवाज्य तो आवश्यक निमित्त हैं । परन्तु अन्तिम तीन पद सुरेन्द्रता, परमसाम्राज्य-चक्रवर्तीत्व और अरहन्ततीर्थकरत्व ये तीन आवश्यक निमित्त नहीं हैं। इनके बिना भी कोई सज्जातीय, सद्गृहस्थ सम्यग्दृष्टि जीव दीक्षा धारण कर आत्मसाधना करके शिवपर्याय को प्राप्त कर लेते हैं। सुरेन्द्रतादि के समान प्रारम्भिक तीन पद अनावश्यक नहीं हैं। सज्जातित्वादि तो मोक्ष की प्राप्ति में साधन होने के कारण सर्वथा आवश्यक हैं ।
यद्यपि यह ठीक है कि सामान्यतया तीनों ही पद कर्माधीन होने से परतन्त्र हैं, नश्वर हैं तथा अनेक दुःखों से आक्रान्त भी हैं, इसलिए शिवपर्याय की अपेक्षा हेय हैं । तथापि सम्यग्दर्शन के सहचारी पुण्य विशेष के फल होने के कारण सातिशय एवं संसार में सर्वाधिक सम्मान्य हैं। गौणरूप से कहे गये भी ये तीनों पद जो सरेन्द्र, राजेन्द्र और धर्मेन्द्र ये तीनों एक इन्द्र शब्द के द्वारा कहे गये हैं, वह इन्द्र शब्द परमेश्वर्य का वाचक होने से शासन के अधिकार की योग्यता को मुख्यतया प्रकट करता है । क्योंकि ऐश्वर्य में आज्ञा की प्रधानता रहा करती है, न कि वैभव की । यद्यपि उनका वैभव भी अधिक रहता है फिर भी ऐश्वर्य में उसको अपेक्षा नहीं है। किसी व्यक्ति का वैभव कम हो या ज्यादा परन्तु उसको आज्ञा प्रवृत्त हुआ करती हो तो वही वास्तव में इन्द्र कहलाता है। इस तरह के पद तीन हो हैं, और वे नियम से सम्यग्दृष्टि को ही प्राप्त होते हैं, तथा अन्त में वे नियम से शिवपर्याय को भी प्राप्त होते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव इस तरह के किसी भी पद की वास्तव में आकांक्षा नहीं रखता, उसका अन्तिम लक्ष्य साध्य पद तो अपना शुद्ध शिव स्वरूप ही है । हाँ जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं