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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १२१ पूर्व में पृथक्-पृथक् श्लोकों के द्वारा सम्यग्दर्शन का जो फल कहा है उसे अब दर्शनाधिकार की समाप्ति के समय संग्रहरूप से उपसंहार करते हुए कहते हैं
(जिनभक्तिः) जिनेन्द्र भगवान का भक्त (भव्यः) सम्यग्दृष्टि पुरुष (अमेयमानं) अपरिमित प्रतिष्ठा अथवा ज्ञान से सहित ( देवेन्द्रचक्रमहिमानं ) इन्द्र समूह की महिमा को (अवनीन्द्र शिरोऽर्चनीयं) मुकुटबद्ध राजाओं के मस्तकों से पूजनीय (राजेन्द्रचक्र) चक्रवर्ती के चक्ररत्न को (च) और ( अधरीकृतसर्वलोकं ) समस्तलोक को नीचा करने वाले (धर्मेन्द्र चक्र) तीर्थंकर के धर्मचक्र को (लब्ध्वा) प्राप्त कर (शिव) मोक्ष को (उपति) प्राप्त होता है ।
टीकार्य-जिनेन्द्र भगबान में सातिशय भक्ति रखने वाला भव्य सम्यग्दृष्टि जीव स्वर्ग के इन्द्र समूह विभूतिरूप उस माहात्म्य को प्राप्त करता है जिसका मान-ज्ञान अपरिमित होता है । वह राजेन्द्रचक्र-चक्रवर्ती के उस सुदर्शन चक्र को प्राप्त करता है जो अपनी-अपनी पृथ्वी के मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा अर्चनीय होता है । तथा उत्तमसमादि अथवा चारित्रलक्षण वाले धर्म के जो अनुष्ठाता प्रणेता ऐसे तीथंकरों के समूह को अथवा तीर्थंकरों के सूचक उस धर्मचक्र को प्राप्त होता है जो अपने माहात्म्य से तीनों लोकों को अपना सेवक बना लेता है। इन सभी पदों को प्राप्त करने के पश्चात अन्त में वह मोक्ष को प्राप्त होता है । • इस प्रकार समन्तभद्र स्वामी विरचित उपासकाध्ययन की प्रभाचन्द्र आचार्य
विरचित टीका में प्रथम परिच्छेद पूर्ण हुआ । विशेषार्थ-अनादिकाल से जिन जीवों में सिद्ध होने की योग्यता पायी जाती है वे भव्य हैं। ऐसे जीवों के काललब्धि आदि निमित्त मिलने पर सम्यग्दर्शन की अभिव्यक्ति हो जाया करती है ऐसे ही जीव जब अपने पुरुषार्थ के बल पर अन्य निमित्तों के साहचर्य से अपने शुद्ध स्वभाव में पूर्णतया लीनता तथा शैलेश्य भाव को प्राप्त हो जाते हैं तब वे सिद्धि को भी प्राप्त कर लेते हैं। संसार में भव्य जीव ही जिनेन्द्र भगवान में वास्तविक भक्ति रखने वाले सम्यग्दृष्टि होकर शिव पर्याय को प्राप्त करते हैं ।
सिद्ध जीव संसार सम्बन्धी सभी विकल्पों और उनके कारणभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाब से रहित हैं । पर-सम्पर्क से सर्वथा रहित होने के कारण एकरूप हैं। अपने