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होना, जन्म के समय अनाहत बाधध्वम दीक्षा कल्याणक में पालकी में समवसरण की रचना, इसप्रकार चार कल्याणकों में पाया जाने वाला भाग्य का अतिशय व्यक्त होता है | तीर्थंकर भगवान का धर्मचक्र बिहार के समय आगे-आगे चलता है ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
वाणी सम्बन्धी लोकोत्तर अतिशय तो प्रसिद्ध है हो । जो कि अनक्षरी होकर भी सर्व भाषात्मक है, सबके लिए हितरूप है, अन्तरंग आकांक्षादि दोषों से रहित है और बाहर में श्वासादि के कारण जिसका क्रम अवरुद्ध नहीं होता है, जो भाषा संबंधी अनेक दोषों से रहित है और समस्त शान्तपरिणामी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव जिसका श्रवण करते हैं, उस अपूर्व तत्त्व एवं तीर्थ का प्ररूपण करने वाली सर्वज्ञवाणी के माहात्म्य का कौन वर्णन कर सकता है। जिसके कारण आज श्रेयोमार्ग का प्रवर्तन हो रहा है और भव्य जीव अज्ञान अन्धकार से निकलकर अद्भुत आत्मप्रकाश को प्राप्त कर अनन्तकाल के लिए सिद्धि सुख को प्राप्त कर लेते हैं ||३६||
तथा मोक्षप्राप्तिरपि सम्यग्दर्शन शुद्धानामेव भवतीत्याह
शिवमजर मरुज मक्षयमध्याबाधं विशोकभयशंकम् । काष्ठागतसुख विद्याविभवं विमलं भजन्तिदर्शनशरणाः ॥ ४० ॥
' दर्शनशरणा' दर्शनं शरणं संसारापायपरिरक्षकं येषां दर्शनस्य वा शरणं रक्षणं यत्र ते । 'शिव' मोक्षं । भजन्त्यनुभवन्ति । कथंभूतं ? 'अजरं' न विद्यते जरा वृद्धत्वं' यत्र । 'अरुजं' न विद्यते व्याधियत्र | 'अक्षय' न विद्यतेलब्धानन्तचतुष्टयक्षयो यत्र । 'अध्याबाधं' न विद्यते दुःखकारणेन केनचिद्विविधा विशेषेण वा आबाधा यत्र । 'विशोकभयशंकं' विगता शोकभयशंका यत्र । 'काष्ठागतसुखविद्याविभवं' काष्ठां परमप्रकर्षं गतः प्राप्तः सुखविद्ययोविभवो विभूतिर्यत्र । विमलं विगतं मलं द्रव्यभावरूपकर्म यत्र ॥ ४० ॥
आगे, मोक्ष की प्राप्ति भी सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीवों को ही होती है, यह कहते हैं
( दर्शनशरणाः ) सम्यग्दष्टि जीव ( अजरं) वृद्धावस्था से रहित, ( अरुजं ) रोग से रहित, (अक्षयं ) क्षय से रहित, ( अव्याबाधं ) विशिष्ट अथवा विविध बाधाओं से रहित, (विशोकभयशंक) शोक, भय और शंका से रहित (काष्ठागतसुखविद्याविभवं )