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रत्नकरण्ड धावकाचार
भवणालय चालीसा वितरदेवाण होति बत्तीसा।
कप्पामर चउवीसा चंदो सूरो णरो तिरिओ ।।
अथात्-भवनवासियों के चालास, व्यन्तरों के ३२ इन्द्र, कल्पवासियों के चौबीस इन्द्र, ज्योतिषियों के चन्द्र, सूर्य दो इन्द्र, मनुष्यों का एक चक्रवर्ती इन्द्र और तिर्यञ्चों का एक सिंह इस प्रकार तीर्थकर प्रभु शतेन्द्र वन्दित होते हैं। मोक्षपूरुषार्थ को सिद्ध करने में सम्यग्दर्शन असाधारण कारण माना गया है। आगम में तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध को कारणभूत दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाएं बतलाई गई हैं उनमें भी प्रमुख दर्शनविशुद्धि है। इसके बिना पन्द्रह भावनाएं स्वतन्त्ररूप से अपना कार्य करने में असमर्थ हैं। तथा इन पन्द्रह भावनाओं के बिना भी केवल एक दर्शनविशुद्धि के रहने पर तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हो सकता है क्योंकि इसके साथ ही अन्य कोई भी भावना रहा करती है।
जिन्होंने सम्यक्त्व के साहचर्य से विधिपूर्वक केवली अथवा श्र तकेवली के पादमूल में तीर्थकृतत्व भावना द्वारा अथवा अपाय विचयनामक धर्मध्यान के द्वारा 'मैं वास्तविक श्रेयोमार्ग का उद्धार करके ही रहूंगा' अर्थात् 'संसार के दुःखों से संतप्त प्राणियों को दुःखों से निकाल कर मोक्षमार्ग में लगा दू' ऐसी तीन उत्कट भावना के बल से तीर्थकर नामक सातिशय पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है और ऐसे पुण्य के फलस्वरूप अहंत भगवान ही धर्मरूपी चक्र का प्रवर्तन करने वाले होते हैं । ढाई द्वीप में जितनी भी कर्मभूमियाँ हैं उन सभी कर्मभूमियों में तीर्थंकरों की उत्पत्ति नियत है । वह अनादि से है और अनन्तकाल तक रहेगी। तीर्थकर सभी संसारी प्राणियों के लिए शरणभूत हैं, इनकी दिव्य देशना से चारों गतियों के समनस्क प्राणी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार समवसरण में उपस्थित होकर धर्म की शरण ग्रहण करते हैं ।
यद्यपि तीर्थकर प्रकृति का उदय तेरहवें गुणस्थान में आता है किन्तु फिर भी अनेक पुण्यकर्मों और अतिशय विशेषों से युक्त यह कर्म उदय से पूर्व भी अनेक अदभत महत्ताओं को प्रकट किया करता है, यह उनके भाग्य सम्बन्धी अतिशयों में परिगणित किया जाता है जैसे कि-गर्भ में अवतीर्ण होने से छह माह पूर्व यदि वे स्वर्ग में हैं तो उनकी मन्दार माला आदि म्लान नहीं होती, यदि नरक में हैं तो देवों के द्वारा उनके उपसर्ग का निवारण हो जाया करता है । तथा पन्द्रह माह तक रत्नवृष्टि, माता-पिता की इन्द्रादिक के द्वारा पूजा का होना, छप्पन कुमारिकाओं द्वारा माता की सेवा का