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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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टोकार्थ-सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से जीव धर्मचक्र को प्रवर्ताने वाले तीर्थकर होते हैं । अवलोक के स्वामी सौधर्मेन्द्रादि अमरपति होते हैं। अधोलोक के स्वामी धरणेन्द्र आदि असुरपति होते हैं, तिर्यग्लोक के स्वामी चक्रवर्ती तथा यमधरपति-मुनियों के स्वामी गणधर देव उन तीर्थंकरों के चरण कमलों की स्तुति किया करते हैं वे धर्मादि पदार्थों को अच्छी तरह निश्चयरूप से जान चुके हैं और अनेक प्रकार के दुःख देने वाले कर्मरूपी शत्रुओं से पीड़ित जीवों को शरण देने में साधु होते हैं।
विशेषार्थ- सम्यग्दर्शन का वास्तविक अन्तिम फल निर्वाण है अर्थात् संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख-परमनिःश्रेयस्पद का लाभ ही है परन्तु जब तक वह प्राप्त नहीं होता तब तक अनेक विशिष्ट अभ्युदयादि पदों की प्राप्ति होती रहती है। किन्तु फिर भी आश्चर्य है कि सम्यग्दृष्टि जीव इन पदों को अपना शुद्ध स्वपद नहीं मानता, उसकी महत्त्वाकांक्षा का विषय तो वही पद है जिसका वर्णन आगे किया जायेगा तथा जिसके अनन्तर और कोई भी पद नहीं है।
संसार में जितने अभ्युदय आदि पद हैं, वे सब सीमित हैं। एक साधारण राजा से लेकर चक्रवर्ती तक के सभी पदों का बल सीमित है, अधिकार क्षेत्र सीमित है, आज्ञा, ऐश्वर्य सीमित है, कार्य सीमित है और फल सीमित है, यद्यपि संसार के अभ्युदय आदि पद कथंचित् स्व-पर की दृष्टि से हितरूप भी हैं, किन्तु यह सुनिश्चित है कि इस कारिका में वर्णित जो अभ्युदय पद है वह एक ऐसा पद है जो अपनी सभी योग्यताओं के विषय में सर्वथा स्वतन्त्र, अनुपम, अपूर्व और अनन्त भी है। इस कारिका के द्वारा छठे परमस्थान का वर्णन किया गया है, उससे सामान्य अर्हन्त से प्रयोजन न होकर तीर्थकर अर्हन्त से प्रयोजन है। क्योंकि प्रकृत ग्रन्थ में जिस धर्म का वर्णन किया जा रहा है उसके अर्थरूप से मूलवक्ता तीर्थकर अर्हन्त भगवन्त ही हैं, जो पद सम्यग्दर्शन के फलस्वरूप बतलाया गया है । सम्यग्दर्शन का अंतिम फल संसार निवृत्ति है । परम अर्हन्त पद से ही धर्मतीर्थ का प्रवर्तन हुआ करता है । यह पद पूर्णरूपेण निर्दोष है इसीलिए प्रामाणिक है, दुःख विघातक है और उत्तम सुख का जनक है।
अरहन्त भगवान चार प्रकार के देवेन्द्रों के द्वारा स्तवनीय तथा सेवनीय हैं, क्योंकि गर्भकल्याणक आदि चारों कल्याणकों में विशिष्ट रूप से सेवादि कार्य देवेन्द्रादि ही करते हैं । तीर्थकर भगबान १०० सौ इंद्रों के द्वारा पूजनीय माने गये हैं । यथा