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रत्नकरण्ड श्रावकाचार अधिक संतालीस हजार दो सौ बेसठ योजन से कुछ अधिक बताया गया है। अपने शरीर के अलावा वह एक कम ६६ हजार दुसरे बैंक्रियिक शरीरों का निर्माण करने में समर्थ रहता है जिनके द्वारा वह एक साथ छयानवे हजार रानियों के साथ रमण कर सकता है । वज्रवृषभनाराचसंहनन समचतुरस्रसंस्थान आदि पुण्य प्रकृतियों के उदय से अभेद्य, अछेद्य, सुन्दर शरीर से विभूषित होता है। बीयन्तिराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, लाभान्तराय तथा दानान्तराय जैसे पाप कर्मों का उसके तीवक्षयोपशम होता है जिससे चक्रवर्ती अनेक असाधारण कार्य सम्पन्न करता है । इस प्रकार चक्रवर्ती का सातिशय पुण्य उसके सम्यग्दर्शन को स्पष्ट करता है ।।३।।
तथा धर्मचक्रिणोऽपि सद्दर्शनमाहात्म्याद् भवन्तीत्याह-- अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्चन्तपादाम्भोजाः । दृष्ट्या सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्याः ॥३६॥
'दृष्टया' सम्यग्दर्शनमाहात्म्येन । 'वृषचक्रधरा भवन्ति' वषो धर्मः तस्य चक्र वषचक्रं तद्धरन्ति ये ते वृषचक्रधरास्नीथंकराः। किंविशिष्टा: ? 'नतपादाम्भोजाः पादावेवाम्भोजे, ते स्तुते पादाम्भोजे येषां। कैः ? 'अमरासुरनरपतिभि:' अमरपतयः ऊर्ध्वलोकस्वामिन : सौधर्मादय:, असुरपतयोऽधोलोकस्वामिनो धरणेन्द्रादयः, नरपतयः तिर्यग्लोकस्वामिनश्चक्रवर्तिनः । न केवलमेतैरेव नूतपादाम्भोजाः, किन्तु 'यमधरपतिभिश्च' यमं व्रतं धरन्ति ये ते यमधरा मुनयस्तेषां पतयो गणधरास्तश्च । पुनरपि कथम्भूतास्ते? सुनिश्चितार्या शोभनो निश्चित: परिसमाप्ति गतोऽर्थो धर्मादिलक्षणो येषां । तथा लोकशरण्याः अनेकविधदुःखदायिभिः कर्मारातिभिरूपद्रुतानां लोकानां शरणे साधवः ।।३।।
___ धर्मचक्र के प्रवर्तक-तीर्थकर भी सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से होते हैं, यह कहते हैं
(दृष्ट्या) सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से (जीवाः) जीव (अमरासुरनरपतिभिः) देवेन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तियों ( च ) तथा ( यमधरपतिभिः ) मुनियों के स्वामी गणधरों के द्वारा ( नतपादाम्भोजाः ) जिनके चरण कमलों की स्तुति की जाती है, (सुनिश्चितार्थाः) जिन्होंने पदार्थ का अच्छी तरह निश्चय किया है तथा जो ( लोकशरण्याः ) कर्मरूप शत्रुओं के द्वारा पीड़ित लोगों को शरण देने में निपुण हैं ऐसे (वृषचक्रधराः) धर्मचक्र के धारक तीर्थकर (भवन्ति) होते हैं ।