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यों तो चक्रवर्ती की विभृति अपरिमित है । किन्तु यहां पर उसे नौ निधियों और चौदह रत्नों का हो अधीश बतलाया गया है, अर्थात् चक्रवर्ती इनका स्वामी है । चक्रवर्ती के इन रत्नों की एक-एक हजार देव रक्षा करते हैं, तथा साथ ही सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा भी वे रक्षित हैं । इतना ही नहीं सभी भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओं के द्वारा प्राप्त धनराशि तथा व्यन्तर देवों के द्वारा भेंट में आये हुए सब रत्न आभूषणों एवं प्रचुर भोग सम्पदा के साधनों की भी प्राप्ति होती रहती है । वर्ती समस्त भूमि का स्वामी होता है । उत्तर से हिमवान और पूर्व, दक्षिण, पश्चिम में लवण समुद्र की सीमा के अन्तर्गत जितनी भूमि है उस सभी को समझना चाहिए | गंगा-सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वत से भरत क्षेत्र के छह खण्ड हो गये हैं । चक्रवर्ती छहों खण्डों का स्वामी होता है । चक्रवर्ती धैर्यशाली एवं पुरुषार्थी होता है, और सम्पूर्ण प्रजा का सर्वोपरि रक्षक और पालक होता है ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
चक्रवर्ती की आयुधशाला में सुदर्शन चक्ररत्न उत्पन्न होता है जिसकी एक हजार देव रक्षा करते हैं। इस चक्ररत्न से चक्री दिग्विजय करने के लिए जाते हैं । दिग्विजय के समय चक्ररत्न सबसे आगे आकाश में चलता है उसके पीछे चक्रवर्ती का षडंग सैन्यबल चलता है, यह चक्र नारायण और चरम शरीर वालों को छोड़कर अन्य किसी भी शत्रु राजा पर चलाने पर व्यर्थ नहीं जाता है । प्रतिनारायण को भी यह सुदर्शन चक्र प्राप्त होता है, इसी के द्वारा नारायण के हाथ से प्रतिनारायण की मृत्यु हो जाती | किन्तु चक्रवर्ती के लिए ऐसी बात नहीं है। उसका पुण्य विशिष्ट अतिशय युक्त होता है । चक्रवर्ती उस चक्ररत्न का प्रवर्तन स्वयं करते हैं । चक्रवर्ती का सभ्यदर्शन प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और अस्तिवयादि के द्वारा स्पष्ट जाना जाता है । बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा चक्रवर्ती की सेवा करते हैं अर्थात् उन राजाओं के मुकुटों के फूल चक्रवर्ती के चरणों में गिरते रहते हैं ।
आदिपुराण में बतलाया है— कि छह खण्डवर्ती समस्त देव और मनुष्यों में जितना बल है उतना बल इस चक्रवर्ती की दोनों भुजाओं में होता है ।
"यबलं चक्रभूत्क्षेत्रवर्तिनां सुधासिनाम् । ततोऽधिकगुणं तस्यबभूव भुजयोर्बलम् ।। "
चक्रवर्ती की दृष्टि इतनी तीक्ष्ण होती है कि वह अपने चमं चक्षुओं से सूर्य के बिम्ब में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन कर लिया करता है, जिसका कि विषय क्षेत्र सबसे