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किया था। तो जिनके निमित्त से पुण्यातिशय तो इन्द्र के लिए भी महत्त्वपूर्ण फलों को बतलाते हुए आवश्यक भी है ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
तीर्थ की प्रवृत्ति का प्रारम्भ हो, ऐसा असाधारण अप्राप्य है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन के असाधारण, परमसाम्राज्य पद का उल्लेख करना उचित ही नहीं
चक्रवर्ती नौ निधियों और चौदह रत्नों का स्वामी होता है । काल, महाकाल, नैः सर्प, पाण्डुक, पद्म, माणव, पिंगल, शंख और सर्वरत्न इसप्रकार आगम में नौ निधियाँ बतलाई हैं। इनमें से-
काल नामको निधि से - लोकिक शब्द अर्थात् व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार आदि सम्बन्धी तथा अन्य भी गायन वादन आदि विषयक शब्द उत्पन्न होते रहते हैं ।
महाकाल - यह निधि असि मसि, आदि षट्कर्म की साधनभूत द्रव्य सम्पत्ति उत्पन्न करती है ।
नःसर्प -- निधि शय्या, आसन, मकान आदि उत्पन्न करती है ।
पाण्डुक से हर प्रकार के धान्य तथा छहों रसों की उत्पत्ति हुआ करती है ।
पद्मनिधि से रेशमी वस्त्र सूती वस्त्र आदि प्राप्त होते हैं ।
दिल से - दिव्य आभरणों की प्राप्ति होती है ।
मानवनिधि से --नीति शास्त्र तथा और भी अन्य शास्त्रों की उत्पत्ति हुआ करती है ।
दक्षिणावतं शंखनिधि से स्वर्ण मिलता है ।
सर्वरत्न से - सर्व प्रकार के रत्नों का लाभ हुआ करता है । रत्नशब्द के अनेक अर्थ होते हैं । यहाँ पर इसका अर्थ इस प्रकार है- 'जाती जाती यदुत्कृष्टंतत्तद्रत्नमिहोच्यते ' अपनी-अपनी जाति में जो उत्कृष्ट है वह उस-उस का रत्न है ।
चक्रवर्ती के ये रत्न १४ होते हैं। इनमें सात तो चेतन होते हैं और सात अचेतन । चेतनरत्न --सेनापति, गृहपति, स्थपति, पुरोहित, हाथी, घोड़ा, स्त्री ।
श्रचेतनरत्न - चक्र, छत्र, दण्ड, खड्ग, मणि, चर्म और काकिणी ये सात अचेतनरत्न हैं ।