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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ १११ चक्रवर्ती पद भी सम्यग्दृष्टि ही प्राप्त करते हैं, ऐसा कहते हैं (स्पष्टदश:) निर्मल सम्यग्दर्शन के धारक मनुष्य ही (नवनिधिसप्तद्वय रत्नाधीशा: ) नौ निधियों और चौदह रत्नों के स्वामी तथा ( क्षत्रमौलिशेखर चरणा: ) राजाओं के मुकुटो सम्बन्धी कलगियों पर जिनके चरण हैं ऐसे ( सर्वभूमिपतय: ) चक्रवर्ती होते हुए (चक्र) चक्ररत्न को ( वर्तयितु) वर्ताने के लिए ( प्रभवन्ति ) समर्थ होते हैं। टोकार्य-निर्मल सम्यग्दर्शन के धारक मनुष्य ही चक्ररत्न को चलाने में समर्थ होते हैं अर्थात अपने आधीन होने से उसे उसके द्वारा साध्य समस्त कार्यों में प्रवर्ताने के लिए समर्थ होते हैं । तथा वे सर्वभूमि-षट्खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती होते हैं। नौ निधियों और चौदह रत्नों के स्वामी होते हैं, जो दोषों से प्राणियों की रक्षा करते हैं ऐसे राजाओं के मुकुटों की कलगियों पर उन चक्रवर्ती के चरण रहते हैं अर्थात् समस्त पृथ्वी के मुकुटबद्ध राजा मस्तक झुकाकर चक्रवर्ती के चरणों में नमस्कार करते हैं। विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन के फल का वर्णन करते हुए आचार्य सप्तपरमस्थानों में चौथे सुरेन्द्रता परमस्थान के अनन्तर पांचवें परमसाम्राज्य नामक परमस्थान के विषय में बतलाते हैं। संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख के मार्गस्वरूप तीर्थ-प्रबर्तन में सुरेन्द्रता का उतना महत्त्व-उपयोग नहीं है जितना कि चक्रवर्तित्व का है । तीर्थकर भगवान के उपदेश की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा में गणधरदेव के पश्चात् यदि कोई बलवत्तर निमित्त कहा जा सकता है तो वह परमसम्राट् चक्रवर्ती का हो पद है । यह सर्व विदित है कि तीर्थंकर भगवान की दिव्यध्वनि का निर्गम गणधरदेव के बिना नहीं होता, ऐसा नियम है। किन्तु यदि कदाचित गणधरदेव न हों तो उस अवस्था में इस नियम के अपवादरूप यदि कोई विकल्प है तो वह यही है कि चक्रवर्ती के उपस्थित होने पर भी तीर्थ की प्रवृत्ति-भगवान की दिव्यध्वनि का प्रारम्भ हो सकता है। जैसा कि प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान की दिव्यध्वनि का प्रारम्भ प्रथम सम्राट श्री भरतेश्वर के प्रश्न के कारण ही हुआ था। ऐसा आदि पुराण पृ० २४, श्लोक ७८, ७६ में बतलाया है । पश्चात् वृषभसेन ने दीक्षा धारण करके प्रथम गणधर का पद प्राप्त
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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