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________________ ܐ ܩ܃ ܃ रत्नकरण्ड श्रावकाचार असंख्यातगुणा होता है । अप्रीति अथवा अकृतार्थता के कारण आकुलता का न होना तुष्टि या सन्तोष कहा जाता है । इस तरह के अन्तरंग भाव से जो युक्त हैं वे तुष्ट समझे जाते हैं। यद्यपि सम्यग्दृष्टि निःकांक्ष हैं बे उसको नहीं चाहते फिर भी वह शोभा अत्यन्त प्रीतिपूर्वक उनके शरीर की और उनकी सेवा करती है। इन्द्र एक भवावतारी परमसम्यग्दृष्टि है। वह कभी-कभी देवियों एवं अप्सराओं की परिषद् में बैठकर उपदेश आदि भी देता है और भोगों का भी अनभव करता है । इस प्रकार चिरकाल तक क्रीडा-भोगों को बिना विघ्न बाधाओं के भोगता रहता है। संसार में सबसे अधिक सुखरूप स्थान स्वर्ग है । यद्यपि यह ठीक है कि तत्त्वतः जिसे दुःख कहते हैं वह स्वर्ग में भी है कर्माधीनता, क्षणभंगुरता संक्लेश आदि दुःखरूप भावों से बे स्वर्गवासी भी मुक्त नहीं हैं। फिर भी कर्मफल को भोगने वाली चारों गतियों में वह इसलिए प्रधान और इष्टरूप माना जाता है कि पुण्यरूप कर्मों का वहाँ अधिक उदय पाया जाता है । तथा मनुष्यों की अपेक्षा देवों को अपने प्राप्त भोगों को भोगने और चिरकाल तक रमण करने में उनकी अनपवायु भी एक बड़ा साधन है । यहाँ पर सम्यग्दृष्टि के लिए जिनेन्द्र भक्त शब्द का प्रयोग किया गया है क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव के जो भक्ति का विशिष्ट शुभरागभाव हुआ करता है उसके द्वारा वह इस तरह के पुण्य विशेष का बन्ध करता है, जिससे देवेन्द्रों के वैभव और ऐश्वर्य से युक्त अवस्था प्राप्त हुआ करती है ।।३७३ तथा चक्रवतित्वमपि त एवं प्राप्नुवन्तीत्याहनवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशाः सर्वभूमिपतयश्चक्रम् । वर्तयितु प्रभवन्ति स्पष्टदृशः, क्षत्रमौलिशेखर चरणाः ।।३।। ये 'स्पष्टदशो' निर्मलसम्यक्त्वाः । त एव 'चक्र' चक्ररत्न । 'वर्तयितु" आत्माधीनतया तत्साध्यनिखिलकार्येषु प्रवर्तयितु । 'प्रभवन्ति' ते समर्था भवन्ति । कथंभूताः ? सर्वभूमिपतयः सर्वा चासो भूमिश्च षट्खण्डपृथ्वी तस्याः पतय: चक्रवर्तिनः । पुनरपि कथंभूता: ? 'नवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशा' नवनिधयश्च सप्तद्वयरत्नानि सप्तानां द्वय तेन संख्यातानि रत्नानि चतुर्दश तेषामधीशाः स्वामिनः । क्षत्रमौलिशेखरचरणाः क्षतादोषात प्रायन्ते रक्षन्ति प्राणिनो ये ते क्षत्रा राजानस्तेषां मौलयो मुकुटानि तेषु शेखरा आपीठास्तेषु चरणानि येषां ।।३।।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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