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रत्नकरण्ड श्रावकाचार से सम्बन्धित तथा उसके लिए उचित और आवश्यक क्रियाओं को गर्भावय किया कहते हैं । और जिनमें जैनधर्म नहीं पाया जाता ऐसे कुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति जब जैनधर्म में दीक्षित होना चाहता है तब उसके लिए उचित और आवश्यक रूप से की जाने वाली क्रिया दीक्षान्वय क्रिया कहलाती है। और जो सन्मार्ग में लगकर उसकी आराधना करके पुण्य का उपार्जन करते हैं, उसके फलस्वरूप जो प्राप्त होती है वह कन्वय क्रिया है । इसके सात भेद हैं-सज्जाति, सद्गृहस्थत्व, पारिवाज्य, सुरेन्द्रता, परमसाम्राज्य, परमाहत्य और परमनिर्वाण। इन कन्वय क्रियाओं को ही परमस्थान कहते हैं । क्योंकि ये उत्कृष्ट पुण्य विशेष के द्वारा प्राप्त होने वाले स्थान हैं तथा ये परमस्थान मोक्ष के कारण हैं ।।
इन सप्त परमस्थानों में आदि के तीन स्थान तो सामान्य हैं । ये मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों के ही होते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि को प्राप्त होने बाले अभ्युदय में फल की विशेषता रहती है तथा ४१ प्रकृतियों का संवर हो जाने से निर्जरा के प्रथम स्थान को प्राप्त हो जाते हैं।
यहाँ पर ओज आदि आठ गुणों का नाम निर्देश किया है वे तो उपलक्षण मात्र हैं किन्तु अन्य अनेक गुणों का भी इन्हीं में संग्रह कर लेना चाहिए जैसा कि धर्य, उद्यम, साहस, बल, वीर्य आदि । जिनके प्रताप एवं तेज के आगे देवता भी नतमस्तक हो जाते हैं तथा किंकरबत् प्रार्थना करते हैं कि हमें आज्ञा प्रदान कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें ? देखिये, भट्टाकलंकदेव के आगे तारादेवी हतप्रभ होकर भाग गयी । इस प्रकार के अनेक प्रभावशाली कार्य सिद्ध हो जाया करते हैं। यहाँ पर आचार्य ने सम्यग्दृष्टि के जिन अभ्युदय आदि फलों को बतलाते हुए सज्जातित्व आदि तीन परम स्थानों को बतलाया है, वह साधारण बात नहीं है क्योंकि ये तीनों ही मोक्षसिद्धि में मुलभूत साधन हैं । जिस तरह रत्नत्रय अन्तरंग असाधारण साधन है उसी प्रकार ये सज्जातित्व, सद्गृहस्थत्व और पारिवाज्य ये तीन परमस्थान बाह्य मुख्य साधन हैं। जिस प्रकार रत्नत्रय में से किसी एक के नहीं होने पर निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती उसी प्रकार इन तीन साधनों में से किसी एक के न रहने पर भी जीव मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है।
अतएव यह सहज ही ज्ञात हो सकता है कि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से पवित्र है, वह स्वभाव से ही अपने लक्ष्यभूत निर्वाण के साधनभूत उन अभ्युदय आदि पदों को