________________
[ १०५
' दर्शनपूता' दर्शनेन पूताः पवित्रिताः । दर्शनं वा पूतं पवित्रं येषां ते । 'भवन्ति' | 'मानवतिलका:' मानवानां मनुष्याणां तिलका मण्डनीभूता मनुष्य प्रधाना इत्यर्थः : । पुनरपि कथंभूता इत्याह 'ओज' इत्यादि ओज उत्साह: तेजः प्रतापः कान्तिर्वा, विद्या सहजा अहार्या च बुद्धिः, वीर्यं विशिष्टं सामर्थ्यं यशो विशिष्टा ख्यातिः वृद्धिः कलत्र-पुत्र पौत्रादि- सम्पत्तिः, विजयः पराभिभवेनात्मनो गुणोत्कर्ष:, विभवो धनधान्यद्रव्यादिसम्पत्तिः एतैः सनाथा सहिता । तथा 'माहाकुला' महच्च तत् कुलं च माहाकुलं तत्र भवाः 'महार्थी' महान्तोऽर्था धर्मार्थ काम मोक्ष लक्षणा येषाम् । ३६ ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
यदि सम्यग्दृष्टि नारकी आदि अवस्था को प्राप्त नहीं होते तो कैसे होते हैं, यह कहते हैं
( दर्शनपूताः ) सम्यग्दर्शन से पवित्र जीव ( ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धि विजयविभवसनाथाः ) उत्साह, प्रताप, विद्या, पराक्रम, यश, वृद्धि, विजय और वैभव से सहित ( माहाकुलाः) उच्चकुलोत्पन्न, ( महार्थाः ) पुरुषार्थ युक्त तथा ( मानवतिलकाः ) मनुष्यों में श्रेष्ठ ( भवन्ति ) होते हैं ।
टीकार्थ -- 'दर्शनेन पूताः पवित्रिताः अथवा दर्शनं पूतं पवित्रं येषां ते' इस समास के अनुसार जो सम्यग्दर्शन से पवित्र हैं अथवा जिनका सम्यग्दर्शन पवित्र है, वे जीव सम्यग्दर्शनपूत कहलाते हैं। ओज का अर्थ - उत्साह, तेज का अर्थ प्रताप या कान्ति है । स्वाभाविक अथवा जिसका हरण न किया जा सके ऐसी बुद्धि को विद्या कहते हैं । वीर्य - विशिष्ट सामर्थ्य को कहते हैं । विशिष्ट व्यति प्रसिद्धि को यश कहते हैं । स्त्री, पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति को वृद्धि कहते हैं । दूसरे के तिरस्कार से अपने गुणों का उत्कर्ष करना विजय है। धन-धान्य द्रव्यादिक की प्राप्ति होना विभव है । उत्तम कुल में उत्पत्ति होना महाकुल और धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूप पुरुषार्थं युक्त होना महार्थ है । जो मनुष्यों में श्रेष्ठ प्रधान होते हैं वे मानवतिलक कहलाते हैं । इस प्रकार पवित्र सम्यग्दृष्टि जीव ओज आदि सहित उच्चकुलोत्पन्न चारों पुरुषार्थों के साधक तथा मनुष्यों में शिरोमणि होते हैं ।
विशेषार्थ -- आगम में प्राप्य अवस्थाओं के वर्णन करने वाले प्रकरण में तीन तरह की क्रियाओं का उल्लेख पाया जाता है- गर्भान्विय, दीक्षान्वय कर्त्रन्वय । जैनधर्म का पालन जिन कुलों में चला करता है उन कुलों में उत्पन्न होने वाले जीव के संस्कारों