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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ १०७ अपने विशिष्ट परिणामों से प्राप्त कर लिया करता है, जिनको मिथ्यात्वरूप कलंक से कलंकित व्यक्ति कभी प्राप्त नहीं कर सकता है । सम्यग्दष्टि को मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने के लिए यद्यपि तीनों परम स्थानों की समानरूप से आवश्यकता है किन्तु फिर भी उनमे सज्जातित्व प्रथम मुख्य साधन है क्योंकि जाति आर्य ही सद्गृहस्थ हो सकता है और उनमें ही कोई विरला भाग्यशाली व्यक्ति पारिव्राज्यपद को ( दीक्षा को ) प्राप्त कर सकता है । पहले समय में सज्जातीयता विषयक अज्ञान अन्धकार को दूर करने के लिए किसी प्रकार के प्रकाश की आवश्यकता नहीं थी, स्वयं ही मातृपक्ष पितृपक्ष सम्बन्धी कुल की पवित्रता और महत्ता तथा पूज्यता जगत्मान्य प्रसिद्ध रहा करती थी । कहीं सन्देह होने पर दिव्यज्ञानियों के कथन से वंश परम्परा का बोध हो जाता था, तथा व्यक्ति की आकृति, चेष्टा, पराक्रम या आचरण से भी जान लिया जाता था कि अमुक व्यक्ति महानुकुल वंश का है या अमुक व्यक्ति नीच कुलोत्पन्न है । जिस प्रकार वसुदेव की कृपा से जब कंस जरासंध की घोषणा के अनुसार युद्ध में विजय प्राप्त करके आ गया तब जरासंध को यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि प्रतिज्ञा के अनुसार राजपुत्री जीवंजसा का विवाह तो कंस के साथ ही होना चाहिए, किन्तु इसके कुल, जाति का तो निश्चय ही नहीं है कि यह किस कुलोत्पन्न है ? पूछने पर कंस ने अपने को कलाली का पुत्र बतलाया, परन्तु जरासंध को यह बात नहीं जँची वह सोचने लगा कि इसकी आकृति तो कहती है कि यह कलाली का पुत्र नहीं है, क्षत्रिय पुत्र है । जैसा कि हरिवंश पुराण में कहा है – 'प्राकृतिः कथयत्यस्य नाम सोधुकरीसुतः ' जब कलाली को बुलाया गया तो विदित हुआ कि यह क्षत्रिय पुत्र ही है । प्रथमानुयोग में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें व्यक्ति के धैर्य, पराक्रम एवं आचरण से सज्जातित्व का पता चल जाता है ॥ ३६॥ तथा इन्द्रपदमपि सम्यग्दर्शनशुद्धा एव प्राप्नुवन्तीत्याह अष्टगुणपुष्टितुष्टा दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः । अमराप्सरसां परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे ॥३७॥
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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